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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14994
आईएसबीएन :9788181431950

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अवसर

ग्यारह


राम के आश्रम के, व्यावहारिक दृष्टि से दो दल बन गए। प्रातः राम और सीता मंदाकिनी में नहाने चले गए। उनके लौटने पर लक्ष्मण तथा मुखर गए। बाद के समय में लक्ष्मण आश्रम के निर्माण-कार्य में लगे रहे और राम सीता तथा मुखर को शस्त्राभ्यास कराते रहे। दोपहर के पश्चात् सौमित्र और मुखर, निर्माण तथा आश्रम की रक्षा के लिए पीछे रुक गए और राम तथा सीता पड़ोस के आश्रमवासियों से परिचित होने के लिए चले गए।

पिछले कुछ दिनों से राम को अपना कार्य-क्षेत्र विस्तृत करने की आवश्यकता का अनुभव हो रहा था। उन्हें लग रहा था, आश्रम में बैठकर शस्त्र-शिक्षा देने से ही, उनका दायित्व पूरा नहीं हो सकेगा। सिद्धाश्रम

क्षेत्र के ग्रामवासियों के ही समान, इस क्षेत्र के ग्रामवासी तो राक्षसों से आतंकित थे ही, साधारण आश्रमवासियों में भी तेज नहीं था। कालकाचार्य, राम के शस्त्रागार के इस प्रदेश में आ जाने से भयभीत थे। उन्हें राक्षसों की अप्रसन्नता की आशंका थी। कुछ अन्य कुलपतियों की भी यही स्थिति थी।...ऐसी स्थिति में राम की शस्त्र-शिक्षा क्या करती? कोई उनके पास आए ही नहीं, तो वे क्या करेंगे? शस्त्र-शिक्षा तो भौतिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए है, किंतु उसके पूर्व लोगों के मन को मुक्त करना होगा। उसके लिए उनके आश्रमों में, ग्रामों में, यहां तक कि उनके घरों में भी जाना होगा कि उनका जीवन कैसा हो...जीवन में उनके क्या-क्या अधिकार हों...जन-साधारण को समझाने के लिए लक्ष्मण उपयुक्त पात्र नहीं हैं...उनके तेज के साथ आक्रोश तथा अधैर्य है। वे तर्क कम करते हैं, व्यंग्य और प्रहार अधिक करते हैं।...नहीं! जन-साधारण तक तो राम को ही जाना होगा। उनके हृदय तथा मस्तिष्क को मुक्त करने के पश्चात् वह उन्हें लक्ष्मण को सौंप सकते हैं। लक्ष्मण उन्हें शस्त्र-शिक्षा देंगे, शस्त्र-निर्माण का कार्य सिखाएंगे, संगठन और युद्ध का व्यावहारिक ज्ञान देंगे...

वृद्ध कुलपति कालकाचार्य ने पहली भेंट में इंगित मात्र किया था, दूसरी भेंट में स्पष्ट कहा था, ''राम! तुम कितने ही वीर क्यों न हो, तुम्हारे पास कितने ही शस्त्र क्यों न हों, तुम्हारा आचरण कितना ही शुद्ध और न्यायपूर्ण क्यों न हो, तुम एक भयंकर जोखिम में घिर गए हो। तुम अपनी युवती पत्नी के साथ एक ऐसे स्थान पर आ गए हो, जहां किसी के प्राण सुरक्षित नहीं हैं, किसी का सम्मान अक्षत नहीं है। मेरी बात मानो राम! तुम लौट जाओ; और जब तक यहां रहो, अत्यन्त सावधान रहो; प्राणपण से अपनी और अपनी पत्नी की रक्षा करो...''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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