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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14994
आईएसबीएन :9788181431950

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अवसर

दो

राजपरिषद् की कार्यवाही, दूत की सूचना से आरम्भ हुई।

'सम्राट्! मैं राज-सार्थी के साथ यात्रा करने वाला दूत विजय हूँ। मैं राजकुमार भरत और शत्रुघ्न का समाचार लेकर आया हूँ। राजकुमार पाँचाल देश से होते हुए, कुरु जांगल प्रदेश को पीछे छोड़ते हुए, सकुशल, पुण्य सलिला इक्षुमती के पार उतर गए हैं।'' प्रत्येक सभासद ने देखा, उद्विग्न सम्राट् को इस समाचार से कुछ प्रसन्नता हुई।

भरत अयोध्या से दूर होता जा रहा है-दशरथ सोच रहे थे-दूत अयोध्या लौटने तक के समय में, वह और भी दूर हो गया होगा किंतु, अयोध्या में बैठे भरतों का क्या हो?...

महामंत्री ने बिना औपचारिक भूमिका के अपनी बात आरम्भ की, ''क्षमा करें सम्राट्! परिषद् की अन्य कार्यवाहियों को स्थगित कर, बीच में एक आवश्यक सूचना देने को बाध्य हूँ।''

''अवश्य'' पुष्कल का समाचार होगा। सम्राट् ने सोचा।

''राज-परिषद् के प्रमुख पार्षद तथा न्याय-समिति या सचिव आर्य पुष्कल का, कल सायं नगर के प्रमुख चतुष्पथ से दस्युओं द्वारा अपहरण हो गया। यह घटना अयोध्या की शांति तथा सुरक्षा-व्यवस्था के नाम पर कलंक है। इतने प्रमुख नागरिक के साथ ऐसा अघटनीय घट जाए। ऐसी स्थिति में कोई भी सामान्य नागरिक स्वयं को सुरक्षित कैसे मानेगा। किंतु आर्य पुष्कल के पुत्र, चिरंजीव विपुल का वक्तव्य इससे भी भयंकर, लज्जाजनक, त्रासद एवं आतंकपूर्ण है। राज-व्यवस्था...''

''महामंत्री!'' सम्राट् ने बीच में ही टोक दिया, ''जिस राज-व्यवस्था की आप धारा-प्रवाह निन्दा कर रहे हैं, उसके आप महामंत्री हैं।''

''सम्राट् ठीक कहते हैं।'' महामंत्री उसी आवेग में बोले, ''किंतु, यह दुर्घटना अंग-रक्षक दल को नगर-रक्षा का भार सौंप देने की व्यवस्था से संबंधित है, जिसके लिए मैं उत्तरदायी नहीं हूँ।''

''अर्थात् मैं उत्तरदायी हूँ।'' दशरथ पुनः बोले। इस बार उनका स्वर शांत नहीं था। उसमें आवेश की स्पष्ट झलक थी, ''तब तो महामंत्री को और भी सोच-समझकर मुख से शब्द निकालने चाहिए। व्यवस्था का अपमान, सम्राट् का अपमान है; और सम्राट् का अपमान....'' सम्राट् अपने ही आवेश में मौन हो गए।

''मुझे अपनी ओर से कुछ नहीं कहना है, सम्राट्!'' महामंत्री के स्वर में न एक प्रवाह था, न तेज, ''आप चिरंजीव विपुल का वक्तव्य सुन लें।''

सम्राट् मौन रहे। विपुल ने झुककर सम्राट् को प्रणाम किया। उसे देखते ही लगता था कि वह रात-भर सोया नहीं है। संभवतः किसी समय थोड़ा-बहुत रोया भी था। उसकी वेश-भूषा, राजसभा मे उपस्थित होने के लिए उपयुक्त नही थी। उसे इसका भी अवसर नही मिला था।

''सम्राट्! कल संध्या का समय, हमारा सारथी जब आहत तथा अचेत अंग-रक्षकों को रथ में डालकर भवन में पहुंचा, तो हमें सूचना मिली कि पिताजी का अपहरण हो गया है। हमारे लिए यह सूचना जितनी अप्रत्याशित थी, उतनी ही घातक भी। मैंने अपने अंग-रक्षकों और निजी सैनिकों को तत्काल चारों ओर दौड़ाया; और स्वयं निकटतम सैनिक चौकी की ओर बढ़ा।...मार्ग में मैंने देखा कि यह समाचार सारे नगर में फैल चुका था। जगह-जगह में विभिन्न प्रकार की चर्चाएं हो रही थीं...अयोध्या जैसे नगर के लिए यह अकल्पनीय घटना थी। राज्य के इतने प्रभावशाली व्यक्ति का इस प्रकार दिन-दहाड़े, राजपथ से हरण हो जाए और नगर-रक्षक कुछ न कर सकें।...अविश्वसनीय! नगर में वाम फैल गया था। हाट बंद हो गए थे। व्यापार ठप्प हो गया था। लोग स्वेच्छा से अपने घरों में बंद हो गए थे। सत्ता की शिथिलता का इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है, सम्राट्!''

"युवक" दशरथ के स्वर में चेतावनी थी।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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