उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
|
0 |
अवसर
लक्ष्मण ने देखा, उद्घोष की मुट्ठियां भिंची हुई थीं। उसके चेहरे पर घृणा और प्रतिहिंसा थीं।
''ओह!'' लक्ष्मण मुस्कराए, ''बस इतना ही था इसका साहस और बल! उद्घोष! अपने को संयत करो भाई। हम युद्ध-बंदी पर प्रहार नहीं कर सकते।''
तुंभरण राम के कुटीर के सम्मुख पहुंचा। सीता और मुखर अपने कुटीरों से निकल आए। राम भी दूसरी ओर से आ गए। उन्होंने देखा उनके सम्मुख भड़कीले वस्त्र पहने, बहुत सारे मूल्यवान आभूषण धारण किए, असाधारण रूप से स्थूलकाय, गौर वर्ण का एक व्यक्ति मुंह लटकाए खड़ा था। वह भय से कांप रहा था।
तुंभरण ने एक बार भी दृष्टि उठाकर नहीं देखा कि उसके सम्मुख कितने व्यक्ति थे, और उनमें कौन-कौन था।
राम ने लक्ष्मण से उसका परिचय पाकर उसे नाम से ही संबोधित किया, ''तुंभरण! रात के इस समय इतने सशस्त्र साथियों के साथ हमारे
आश्रम का फाटक जलाकर, भीतर घुसने का क्या अर्थ है?''
''मेरी तुमसे कोई शत्रुता नहीं है...'' तुंभरण फिर पहले के ही समान घिघियाया, ''मैं तो...मुझे क्षमा कर दो।''
''तुम यहां क्या करने आए थे?'' राम का स्वर कठोर हो गया।
''मै तुम लोगों को...तुमसे मेरी...'' तुंभरण बुरी तरह हकला रहा था, ''मैं तो अपने दास कुंभकार को खोजने आया था। वह मेरे घर से भाग आया है।'' राम ने उद्घोष को संकेत किया। उद्घोष जाकर तुंभरण के सम्मुख खड़ा हो गया।
''इसे पहचानते हो?''
तुंभरण ने अपनी डरी हुई आँखें, उद्घोष पर टिकाईं। अस्वीकार में सिर हिलाते हुए, सहसा उसकी आँखों में पहचान उतर आई, ''यही है।''
''यह मेरे आश्रम का विद्यार्थी है, उद्घोष।'' राम बोले, ''यह तुम्हारा दास कैसे है?''
तुंभरण ने राम को देखा, ''इसके पिता को मैंने अपने बल से जीता था, इसलिए मेरा दास हुआ। यह उसका पुत्र है, इसलिए मेरा दास है।''
''तुम्हें आज इसने युद्ध में जीता है'' राम बोले, ''आज से तुम उद्घोष के दास हो जाओगे?''
''नहीं!'' तुंभरण भय से चीखा, ''नहीं! नहीं!!''
''तुंभरण!'' राम का स्वर दृढ़ था, ''दास प्रथा अमानवीय है-चाहे वह व्यक्ति की हो, समाज की हो या राष्ट्र की। हम उसे स्वीकार नहीं करते। तुम बलात् किसी को अपने अधीन नहीं रख सकते। उद्घोष स्वतंत्र मनुष्य है।...वैसे तुम्हें अपने बल का गुमान हो तो उद्घोष से द्वन्द्व-युद्ध कर सकते हो। तो तैयार?''
उद्घोष अपना खड्ग संभाले आगे बढ़ा। उसके जीवन में इतने उत्साह और उल्लास का क्षण पहले कभी नहीं आया था। किंतु, तुंभरण का चेहरा और भी रक्तहीन हो उठा, ''नहीं!''
राम हँस पड़े, ''तुम तभी तक शर हो, जब तक दूसरा पक्ष तुमसे दुर्बल है। दूसरे पक्ष के समर्थ होते ही, तुम कायर के समान भाग जाओगे...बंदी के प्राण लेना हमारी नैतिकता के विरुद्ध है। इसलिए मैं तुम्हें एक छोटा-सा दंड देकर मुक्त करता हूँ। किंतु फिर कभी तुम आश्रम के आस-पास देखे गए तो मृत्यु दंड दिया जाएगा।''
राम लक्ष्मण की ओर मुड़े, ''इसके हाथ पीछे बांध दो। इसकी पीठ और छाती पर, लिख कर लगा दो कि यह कायर अंधकार में अचेत दुर्बल लोगों की हत्याएं करता है, और समर्थ प्रतिपक्षी को देखकर भय से कांप उठता है। यह भी लिख दो कि इसे उद्घोष की द्वन्द्व-युद्ध की चुनौती स्वीकार करने का साहस नहीं हुआ है।...और उद्घोष। तुम इसे पशु के समान हांककर आश्रम की सीमा से बाहर खदेड़ आओ।''
|