उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
|
0 |
अवसर
''माता।''
कैकेयी के लिए मौन बने रहना अधिक सरल था। बोलने के लिए उसे भी प्रयास करना पड़ा। शब्द अनाहूत् नहीं आए। वह कठोर स्वर में बोली, ''राम! तुम्हारे पिता तुमसे बहुत प्रेम करने लगे हैं।''
''प्रेम तो मुझसे आप भी करती हैं, किंतु यह स्थिति...''
कैकेयी का तनाव कुछ कम हुआ। बोली तो उसका स्वर पहले की अपेक्षा कुछ कोमल और सहज था, ''सम्राट् ने एक वचन मेरे पिता को दिया था, उसकी चर्चा मैं नहीं कर रही। किंतु, मेरे उपकार के बदले, शंबर-युद्ध के पश्चात् उन्होंने दो वर मुझे दिए थे। आज मैं वे वरदान मांग रही हूँ और ये सूर्यवंशी सहर्ष वरदान देने के स्थान पर, रात-भर इसी प्रकार भूमि पर पड़े दीर्घ निःश्वास छोड़ते रहे हैं। इन्होंने अपने इस रूप से मुझ पर दबाव डालने का प्रयत्न किया है, और अब भी कर रहे हैं कि मैं अपने मांगे हुए वरदान फिरा लूं।...''
कैकेयी के शब्दों ने सम्राट् के हृदय पर कशा का-सा आघात किया। वे तड़पे, ''कैकेयी!''
''क्यों?'' कैकेयी के आक्रोश में ज्वार आ गया। उसे बोलने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ा। आवेश की अग्नि में बांध जल गया; और अवरुद्ध धारा बह निकली, ''राम! मैं जानती हूँ कि मैं बहुत कठोर हो रही हूँ। सब लोग मुझे बुरा कहेंगे; पर मेरे मन में तनिक-सा भी पाप-बोध नहीं है। मेरे मन में तनिक-भी मैल और दुराव नहीं है। अपने पिता की ओर देख तुम्हें लग रहा होगा कि मैं बड़ी दुष्टा हूँ जो अपने पति को इतना कष्ट दे रही हूँ। पर सच यह नहीं है पुत्र! तुम्हें मैंने पीड़ा भी दी है और अपने मन की ममता भी। बोलो, तुम मेरा निष्पक्ष न्याय करोगे?''
राम मुस्कराए, ''पुत्र न्यायकर्ता की स्थिति में न भी हो तो मां के मन की व्यथा तो सुन ही सकता है।''
''मैं आज वह सब कहूँगी जो चाहकर भी आज तक कह नहीं सकी।'' कैकेयी बोली, ''मैं देवी होने का स्वांग नहीं कर रही। तुम्हारे प्रति विशेष प्रेम और पक्षपात भी नहीं जता रही...''
''कहो मां!''
'मैं वह धरती हूँ राम! जिसकी छाती करुणा से फटती है तो शीतल जल उमड़ता है; घृणा से फटती है तो लावा उगलती है। दोनों मिल जाते हैं तो भूचाल आ जाता है। मेरी स्थिति भूडोल की है राम! ''कैकेयी का चेहरा लाल हो गया, ''मैं इस घर में अपने अनुराग का अनुसरण
करती हुई नहीं आई थी। मैं, पराजित राजा की ओर से विजयी सम्राट् को संधि के लिए दी गई भेंट थी। सम्राट् और मेरे वय का भेद आज भी स्पष्ट है। मैं इस पुरुष को पति मान, पत्नी की मर्यादा निभाती आई हूँ पर मेरे हृदय से इसके लिए स्नेह का उत्स कभी नहीं फूटा। ये मेरी मांग का सिंदूर तो हुए, अनुराग का सिंदूर कभी नहीं हो पाए। मैं इस घर में प्रतिहिंसा की आग मे जलती, सम्राट् से संबंधित प्रत्येक वस्तु से घृणा करती हुई आई थी। तुम जैसे निर्दोष, निष्कलुष और प्यारे बच्चे को अपने महल में घुस आने के अपराध में, मैंने अपनी दासी से पिटवाया था!''
''मुझे याद है मां?''
|