उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
''वह मैंने तुम्हें नहीं पिटवाया था, मेरी प्रतिहिंसा ने सम्राट् के पुत्र को पिटवाकर, सम्राट् को पीड़ित कर, प्रतिशोध लेना चाहा था। तब मैं तुमसे घृणा करती थी। मैं रघुवंशियों से, मानव-वंश की परंपराओं से-प्रत्येक वस्तु से घृणा करती थी। जहां तक संभव हुआ, मैंने बड़ा उद्दंड, उच्छृंखल और अमर्यादित व्यवहार किया-केवल इसलिए कि उन सबके माध्यम से मैं सम्राट् को पीड़ा पहुंचा सकूं। पर क्रमशः मैंने पहचाना कि मैं तुम्हें या बहन कौसल्या को पीड़ा पहुंचा कर, सम्राट् को पीड़ा नहीं पहुंचा रही हूँ-उससे तो मैं सम्राट् को खुश देख रही हूँ। तुम लोगों से उनका संबंध भावात्मक नहीं, अभावात्मक था। तुम लोग तो स्वयं मेरे समान पीड़ित थे, अपमानित थे। और फिर तुम्हारे और बहन कौसल्या के गुण मेरे सामने प्रकट हुए। मुझे तुम लोगों से सहानुभूति हुई, जो क्रमशः प्रेम में बदल गई। क्या मैं झूठ कह रही हूँ राम?''
''नहीं मां! तुमने मुझे भरत का-सा प्यार दिया है।''
''मैंने क्रमशः मानव-वंशी परंपराओं का विरोध भी छोड़ दिया। मैंने पहचाना कि अपनी प्रतिहिंसा में मैंने न्याय-अन्याय का विचार छोड़ दिया है। मैं स्वयं अपनी राक्षसी बन रही हूँ। मैं किसी अन्य को नहीं, स्वयं अपनी आत्मा को पीड़ा दे रही हूँ। शनैः-शनैः मैंने स्वयं को सहज किया। अपना विरोध छोड़ने के प्रयत्न में, पिता द्वारा लिया गया वचन भुला दिया; शंबर-युद्ध के पश्चात् मिले अपने वरदानों का उपयोग नहीं किया, और अयोध्या की प्रजा के समान चाहा कि राम ही युवराज हो। तुम ही योग्य थे पुत्र! तुम ही इस योग्य हो। किंतु, मुझे अपनी सद्भावना का पुरस्कार क्या मिला?''
राम मौन रहे। वह भरी आँखों से कैकेयी को देखते रहे।
''इस राजप्रासाद में मुझ पर कभी विश्वास नहीं किया गया। मुझे सदा चुड़ैल समझा गया। मेरे भाई को आतंक माना गया। मेरे मायके की परंपराओं को हीन और घृणित कहा गया। मैं सदा यहां अपरिचित होकर रही-एक बाह्य वस्तु जिसका यहां के हवा-पानी से कोई मेल नहीं था। मैं बहन कौसल्या या सुमित्रा या अन्य किसी को उनके लिए दोष नहीं देती। उनसे मेरा संबंध ही ऐसा था-वे मुझ पर विश्वास नहीं कर सकती थी। मुझे और किसी से शिकायत नहीं। शिकायत है, अपने इस पति से; जो बलपूर्वक मुझसे विवाह कर, मुझे यहां लाया, जिसने अयोग्य होते हुए भी मुझसे सद्भावना चाही और प्राप्त की; किंतु स्वयं मेरे प्रति घोर दुर्बलता का अनुभव करते हुए भी, मुझ पर कभी विश्वास नहीं किया। मैं उसके लिए आकर्षक किंतु भय की वस्तु रही। उसने मुझे अपने सिंहासन पर तो स्थान दिया, किंतु हृदय में नहीं।...मैं उस सारे समय के लिए क्या कहूँ राम! जब-जब सुना कि मेरे पति ने कोई कर्म किया है, कोई निर्णय किया है, किंतु भयभीत होकर, मुझसे छिपाया है, झूठ बोला है। अपने ऐसे व्यवहार से उसने अपना आत्म-विश्वास खोया है, स्वयं अपने-आपको और मुझे बार-बार अपमानित किया है। राम! तुम पुत्र हो मेरे, तुम्हें कैसे बताऊं कि हमारी रातें प्यार-मनुहार में कटने के स्थान पर झगड़ों और लानत-मलामत में बीत जाती थीं। बार-बार संकल्प करने के बाद भी झगड़े होते रहे। कलह-क्लेश शांत ही नहीं हुए। पति-पत्नी के इस दुष्प्रभाव से बचाने के लिए, उसे एक शांत और स्नेहिल वातावरण देने के लिए, मैं भरत को बार-बार उसके ननिहाल भेजती रही...''
कैकेयी का स्वर रुंध गया। आँखों में जल और अग्नि एक साथ प्रकट हुए, ''अन्त में मैंने क्या पाया राम! कल रात-ढले, कुब्जा तुम्हारे युवराज्याभिषेक का समाचार लाई। मैंने बहुमूल्य मोतियों की माला कुब्जा को पुरस्कार में दे डाली किंतु कुटिया दासी ने वह मुंह पर दे मारी। किस आधार पर किया उसने यह दुस्साहस?''
कैकेयी क्षण-भर रुकी, और पुनः वह निकली, ''तुम्हारे प्रति मेरे अविश्वास के आधार पर। उसने मुझे बताया यह गोपनीय निर्णय था। सम्राट् को आशंका थी कि कुछ लोग अभिषेक में विघ्न डालेंगे, राम को नष्ट करने के लिए रातों-रात उस पर आक्रमण करेंगे। किससे था भय? मुझसे! मेरे पुत्र से!! मेरे भाई से!!! इसीलिए मुझे बताया नहीं। भरत को ननिहाल भेज दिया। भरत की अधीनस्त टुकड़ियों को उत्तरी सीमांत की ओर स्थानांतरित कर दिया। पुष्कल का अपहरण करवा उसे बंदी कर लिया। कैकय के राजदूत की निजी सेना का निःशस्त्रीकरण हुआ...'' कैकेयी का स्वर और ऊंचा हो गया और आँखें आक्रोश से जल उठीं, ''थूका है मेरी सद्भावना पर। मेरे चरित्र के उदात्त-स्वरूप पर। यहां कोई मुझे देवी के रूप में नहीं देखना चाहता। सब मुझे चुड़ैल समझते हैं-मेरे क्रूर रूप को ही सत्य मानते हैं तो वही हो राम! वही हो...'' कैकेयी जैसे अपने से ही अवश होकर फफक-फफककर रो पड़ी।
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