उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
राम ने आगे बढ़कर कैकेयी के कंधे पर हाथ रखा, ''मत रोओ मां! मुझे तुम्हारी एक-एक बात का विश्वास है। मैं तुम्हारे दोनों रूपों को जानता हूँ। कोई और तुम्हें जितना भी गलत समझे, मैं गलत नहीं समझूंगा। किसलिए बुलाया था-मुझे निःसंकोच आदेश दो।''
सम्राट् ने एक बार आँखें खोलकर राम को देखा। कितनी आशंकाएं थी उन आँखों में, जैसे राम को चेतावनी दे रही हों, ''सावधान राम! इस मायाविनी के जाल में मत फंस जाना।'' पर आँखें खुली नहीं रह सकीं, तुरन्त मुंद गईं।
''मंथरा साधारण, संकुचित, अनुदार, मूर्ख तथा नीच चरित्र की दासी है।'' कैकेयी पुनः बोली, ''उसकी बात किसी विवेकशील व्यक्ति को नहीं माननी चाहिए। किंतु, फिर भी मैं उसकी बात मानूंगी। उसकी सलाह पर चलूंगी। उसे अपनी हितकांक्षिणी मानूंगी। जब सम्राट् के मन में है तो मैं क्यों न मंथरा की यह बात स्वीकार कर लूं कि राम को भरत से भय है; और शासन प्राप्त कर वह अपने भय के कारण को समाप्त करना चाहेगा? मैं क्यों न यह मान लूं कि अपनी आरंभिक प्रतिहिंसा में, मैंने जो बार-यार बहिन कौसल्या का अपमान किया है, पुत्र के अधिकार प्राप्त कर लेने पर वह अवश्य ही प्रतिशोध लेना चाहेंगी? नहीं तो उनका उद्गार 'आज मैं कैकेयी के भय से मुक्त हुई' न होता। यदि सचमुच वे मुझे सुनाना न चाहतीं, तो उनकी दासियां यह वाक्य मंथरा तक न पहुंचातीं।...सम्राट् के अविश्वास ने मेरे चरित्र के दुष्ट तत्वों को उकसा दिया है, मेरी प्रतिहिंसा और घृणा को जगा दिया है। मैं सम्राट् को इसका दंड दूंगी -ऐसी आग लगाऊंगी कि आग बुझ भी जाए तो उसकी लहर समाप्त न हो। सम्राट् को जलाऊंगी--चाहे उस अग्नि में स्वयं जल जाना पड़े, चाहे तुम अपने शरीर और मन पर टीसते हुए फफोले वहन करो। पर मेरी प्रतिहिंसा शांत नहीं होगी। मैं उसे शांत नहीं होने दूंगी।''
कैकेयी मौन हो गई। राम को लगा, वह अपनी आत्मा से लड़ते-लड़ते थक-टूट गई है। पर उसका संघर्ष जारी है। वह सम्राट् के विरुद्ध भी लड़ रही है...पर यह सब क्या है? क्या चाहती है कैकेयी?'' कैसी आग लगाना चाहती है?
बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी; किंतु कैकेयी के वचनों के पीछे निहित प्रक्रिया का कुछ-कुछ आभास राम को मिल रहा था। पति-पत्नी के इन विग्रह-पूर्ण क्षणों में राम को क्यों बुलाया गया था। पिता राम से आँखें क्यों चुरा रहे थे? कैकेयी राम को ही क्यों उपालंभ दे रही थी? क्या उन वरदानों का संबंध राम से है?
''मुझे क्या आदेश है'' राम ने पूछा।
''पिता के वरदान पूरे करो।'' कैकेयी का स्वर कठोर हो गया।
''मेरी क्षमता में हुआ तो अवश्य पूरा करूंगा।''
कैकेयी का स्वर फिर से कोमल और करुण हो उठा, ''मैं जानती थी कि तुम विरोध नहीं करोगे। इसे मेरी कुटिलता मत समझना पुत्र! किंतु मुझे कहने दो, मैंने किसी को पहचाना हो न पहचाना हो, तुम्हें पहचानने में मैंने तनिक भी भूल नहीं की है।''
राम के अधरों पर मुस्कान ही उभरी।
''राम! मैंने दो वर मांगे हैं।'' क्षण-भर कैकेयी अपने भीतर की पीड़ा से जूझती रही, और फिर कठोरता का कवच ओढ़कर बोली, ''पहला तुम्हारे युवराज्याभिषेक के लिए प्रस्तुत की गयी सामग्री से ही भरत का युवराज्याभिषेक हो; दूसरा, तपस्वी वेश में तुम आज ही चौदह वर्षों के लिए वनवास के लिए प्रस्थान करो।''
राम को अपने भीतर एक झटका-सा लगा। क्या यह दुःख था? नहीं! शायद यह पूरी तरह दुःख नहीं था : था भी, नहीं भी। वह आकस्मिकता का धक्का था। पर यह आकस्मिकता कितनी अनुकूल थी।
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