उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
सीता के चेहरे का तेज उभरा। तमककर बोलीं, ''सुविधाओं और सुरक्षाओं की बात मुझसे मत कीजिए। सुविधा की बात सोचने वाला व्यक्ति कभी स्वार्थ से उबर सका है? आज तक यही समझा है आपने मुझे? राजप्रासाद का लालच मुझे न दें। जहां आप जाएंगे, मैं भी जाऊंगी।''
''मेरी बात नहीं मानोगी?''
''यह बात नहीं मानूंगी।''
''लोग क्या कहेंगे?''
''उन्हें बुद्धि होगी, तो कहेंगे कि सीता पति से प्रेम करती है।''
''नहीं प्रिये!'' राम फिर गंभीर हो गए, ''मैं तुम्हारी क्षमताओं को जानता हूँ, इसीलिए चाहता हूँ कि तुम यहीं रहो। तुम यहां रहोगी, तो मुझे वन में मां की चिंता नहीं सताएगी। और...'' राम ने रुककर सीता को देखा, ''प्रेम अथवा आदर्शों की भावुकता में यथार्थ को अनदेखा मत करो। वन में राजप्रासाद नहीं होते, सेना नहीं होती, प्रहरी नहीं होते। पेट की अंतड़ियां भूख से बिल-बिलाकर टूट रही हों, तो खाने को अत्र नहीं मिलता; सर्दी-गर्मी में उपयुक्त कपड़े नहीं मिलते।''
सीता का स्वर अत्यन्त विक्षोभपूर्ण हो उठा, ''तो आप यही समझते हैं कि सुख-सुविधापूर्ण जीवन के लिए मैं आपके साथ हूँ। क्या आपने
यही मानकर मुझसे विवाह किया था कि मैं भौतिक सुविधाओं के लिए ही बनी हूँ, राम! मैं आपकी संगिनी हूँ। मैं आपके साथ चलूंगी।''
राम ने शांत भाव से तर्क रखा, ''चलना चाहो तो अवश्य चलो। पर सोचो, लोग क्या कहेंगे-मैंने तुमसे विवाह कर, वन में ले जाकर तुम्हें पीड़ित किया। सम्राट् सीरध्वज की पुत्री को चौदह वर्षों तक वन-वन भटकाया। क्या मैंने पति का कर्त्तव्य निभाया?''
अपना क्षोभ छोड़ सीता मुस्करा पड़ीं, ''इतने स्वार्थी न बनो राम! तनिक मेरी ओर से भी सोचो। मैं पीछे राजमहल में रह गई तो लोग मुझे क्या कहेंगे-वन की असुविधाओं के भय से मैंने पति का साथ छोड़ दिया-राम जैसे पति का। क्या मैंने पत्नी का कर्त्तव्य निभाया?''
सहसा सीता का मुख कातर हो उठा, वाणी रुंध गई, ''आपसे कुछ भी छिपा नहीं है। सम्राट् सीरध्वज ने मेरा पालन-पोषण अपनी आत्मजा के समान किया; किंतु संसार जानता है कि मैं अज्ञातकुलशीला, पृथ्वीपुत्री, सामान्य, अति साधारण स्त्री हूँ।...यदि आज मैं आपके साथ नहीं जाती तो संसार एक स्वर से कहेगा, पृथ्वीपुत्री, साधारण नारी सीता-राजसी सुविधाओं के लोभ में अपना धर्म भूल गई। भूखी थी, सुविधाएं देख, लोलुप हो उठी।...मुझे कलंकिनी न बनाएं राम!''
राम ने देखा, सीता इस समय केवल नारी थीं, जो अपने पुरुष से उचित व्यवहार मांग रही थीं।
''सीते! मैं तुम्हें कलंकित करना नहीं चाहता। मैं तुम्हें अपने योग्य, समर्थ एवं सक्षम पत्नी के रूप में देखता हूँ। अपनी चिंताएं कम करने के लिए ही चाहता हूँ कि तुम पीछे सुरक्षित रहो; ताकि मैं निश्चिंत होकर अपना काम कर सकूं। तुम साथ हुईं और मैं तुम्हारी देखभाल में लगा रहा तो अरक्षितों की रक्षा कैसे करूंगा; और अपने कर्त्तव्य में लगा रहा तो तुम्हारी रक्षा कौन करेगा?''
सीता खिलखिलाकर हँस पड़ी। खिलखिलाहट के झटके से आँखों में टंगे आँसू गिर पड़े। हंसी से आधे पुछे, अपने गीले नेत्र राम की आँखों में डाल, लीलापूर्वक बोलीं, ''व्यर्थ की वीरता का नाटक न करो राम। जो अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर सकता वह ऋषियों की रक्षा का लक्ष्य लेकर वन में क्या करने जा रहा है?''
राम गंभीर हो गए। तर्क ठीक था। उन्हें सोचना होगा। चुनौती को पहचानना होगा और उसका सामना करना होगा। कहीं वह अपनी क्षमता से बड़ा दायित्व उठाने का दंभ तो नहीं कर रहे?...फिर, सीता पर्याप्त दृढ़ थीं। वह सचमुच साथ जाने पर तुली थीं! इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा कि पति-पत्नी का लक्ष्य एक हो; और वह लोग अपनी सम्मिलित शक्ति से जीवन को लक्ष्य की ओर ले चलें। व्यक्तिगत प्रतिबद्धता से, पारिवारिक प्रतिबद्धता और अधिक सक्षम होती है।...
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