उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
''तो ठीक है सीते! तुम भी चलो। माताओं से अनुमति ले लो। अपना धन-धान्य, आभूषण-संपत्ति-सब सुपात्रों को दान कर दो। धन-संपत्ति वन में साथ नहीं जाएगी।''
परिचारिकाओं की सूचना से पूर्व ही लक्ष्मण झंझावत के रूप में कक्ष में घुस आए। राम ने देखा, लक्ष्मण के शरीर की एक-एक शिरा टूटने की सीमा तक तनी हुई थी। उनकी आँखों में भयंकर लपटें जल रही थीं, मानो वह नेत्र न हों, उल्काएं हों। नथुने क्षण-क्षण में फड़क रहे थे। चेहरे का गौर वर्ण, क्रोध से झुलसकर, ताम्र वर्ण हो गया था।
''आ गए उग्रदेव?'' सीता बहुत धीरे से मुस्कराईं।
लक्ष्मण ने अपनी धुन में सीता की बात नहीं सुनी। वह राम से कुछ दूरी पर, उनकी ओर देखते चुप खड़े हो गए; जैसे क्रोध के मारे समझ न पा रहे हों कि क्या कहें।
''समाचार मिल गया?'' राम शांत भाव से बोले।
लक्ष्मण कुछ और तप उठे, ''समाचार मिल गया है और अपनी ओर से भी आपको एक समाचार ही देने आया हूँ। लक्ष्मण के कंधों पर टंगे धनुष-बाण और कमर में बंधा खड्ग न तो बच्चों के खिलौने। हैं, न शोभा की वस्तुएं। मैं अपने शस्त्रास्त्र लेकर जा रहा हूँ। दुष्टा कैकेयी के मंत्र में बंधे नाग सरीखे, बूढ़े विषयी सम्राट् को बंदी कर ले आऊंगा; और यदि उन्होंने विरोध किया, तो नाग का फन कुचलना भी मुझे आता है। विष के मद में लहराना भूल जाएंगे।...भरत के पक्ष से जो भी लड़ने आएगा उसका वध कर दूंगा।''
लक्ष्मण के क्रोध से पूर्णतः अप्रभावित राम शांत खड़े रहे। पति-पत्नी में समझौते की एक मुस्कान का आदान-प्रदान हुआ।
''आवेश का शमन करो लक्ष्मण! उसकी आवश्यकता नहीं। तुमने अभी जैसा कहा है, वैसा कुछ भी नहीं करोगे यह मेरा आदेश है।''
''भैया!'' लक्ष्मण तड़प उठे, ''ऐसा आदेश न दें। अन्याय का प्रतिरोध न करना अधर्म है।''
''तुम ठीक कह रहे हो। पर मैं भी धर्म पर ही चलने का प्रयत्न कर रहा हूँ।'' राम मुस्करा रहे थे।
''भैया! बालक समझ कर, मेरी बात को हंसी में न टालें।'' लक्ष्मण अनुरोध के स्वर में बोले, ''यह न समझें कि यदि आप पिता की आज्ञा का पालन नहीं करेंगें, तो मर्यादा भंग के कारण आपकी लोकप्रियता कम हो जाएगी। मेरी मां कहती हैं कि राम का पक्ष न्याय का है। सारी प्रजा यही मानती है। अन्यायपूर्ण आइय की अवज्ञा को धर्म माना जाता है। मर्यादा कभी रूढ़ नहीं होती। देशकाल के अनुसार उसका रूप बदल जाता है। मेरी बात मानें भैया! इस आज्ञा का उल्लंघन करें।''
''तुम ठीक कहते हो देवर!'' सीता बोलीं, ''मैं भी तब से इन्हें यही समझा रही हूँ; किंतु पत्नी के कहे में चलने की परंपरा वाले इस रघुवंश में जन्म लेकर भी तुम्हारे भैया मेरी बात नहीं मान रहे हैं।''
''देवि! यह वंश केवल पत्नी के कहे में चलने की परंपरा वाला ही नहीं, एकाधिक विवाह कर, ज्येष्ठ पत्नी का तिरस्कार करने वाला भी है। मैंने उस परंपरा का पालन नहीं किया है।'' राम मुस्करा कर मुड़े, ''लक्ष्मण! तुम आवेश में अनेक बातें भूल रहे हो। मैंने ऋषि विश्वामित्र को वचन दिया था। आज मुझे अपना वचन पूरा करने का अवसर मिल रहा है, मैं अन्य सामान्य राजकुमारों के समान सिंहासन के लिए झगड़ा करूं, अपने बंधु-बांधवों, परिजनों की हत्याएं करूं? लक्ष्मण! यह वनवास नहीं, मेरे जीवन का अभ्युदय है; संकीर्ण राजनीति से उबर, व्यापक मानवीय कर्त्तव्य निभाने का अद्वितीय अवसर है।''
लक्ष्मण का क्षोभ विलीन हो गया था। संकुचित-से होकर बोले, ''मैं भूल गया था भैया।...हमें वन जाना चाहिए...''
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