उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
राम का ध्यान लक्ष्मण की बात से हटकर, उनकी भंगिमा पर आकर टिक गया। वह 'आपको वन जाना चाहिए न कहकर 'हमें वन जाना चाहिए' कह रहे थे। ''हो गए न तुम भी तैयार!'' सीता कौतुक पूर्वक बोलीं।
''ठहरो भाभी!'' लक्ष्मण पुनर्विचार करते हुए बोले, ''भैया! यह भी तो हो सकता है कि आप अयोध्या का शासन अपने हाथ में लें...कम-से-कम दुष्टा कैकेयी के हाथ में तो उसे न ही छोड़ें। फिर अपनी सेना सहित दंडक के राक्षसों और उनके संरक्षक रावण से जा टकराएं।''
''एक मार्ग यह भी है'' राम ने स्वीकार किया, ''किंतु यदि यह मार्ग व्यावहारिक होता तो कदाचित दंडक वन को इतनी लम्बी प्रतीक्षा न करनी पड़ती। कोई भी सम्राट् यह कार्य कर चुका होता। लक्ष्मण! सैनिक अभियानों से, जन-सामान्य की असुविधाएं दूर नहीं होतीं। सेना विजय दिला सकती है, क्रांति नहीं ला सकती। प्रत्येक समस्या का समाधान सेना नहीं है। जन-क्रांति, जन-जागृति से होती है; और उनकी आकांक्षा जनता के भीतर से उत्पन्न होती है। ऊपर से थोपी हुई सैनिक क्रांतियां सदा निष्फल होती हैं।...ऋषि विश्वामित्र ने बताया था, सेनाओं के जाने की सुविधाएं भी उन वनों में नहीं हैं। हम उन वनों से परिचित भी नहीं है। सेना को ले जाने के लिए जो प्रबंध वहां होना चाहिए, वह भी कदाचित हमारे लिए व्यावहारिक नहीं है। इतनी बड़ी सेना, उनके वाहनों और शस्त्रास्त्रों को ले जाना; भोजन-पानी का प्रबंध करना, उनके ठहराए जाने की व्यवस्था करना-इतने में तो वन-के-वन उजड़ जाएंगे; और जिनकी रक्षा के लिए सेना जाएगी, वे ही लोग सेना के विरुद्ध हो जाएंगे। वैसे भी अपने राज्य से इतनी दूर इतने बड़े सैनिक अभियान में विजय प्राप्त करना असंभव-सा है। गुरु विश्वामित्र ने कहा था, मुझे अकेले जाना होगा। राजसी वेश में जाऊंगा, तो जन-साधारण दूर से प्रणाम कर लौट जाएंगे। जब तक मैं उनमें से एक होकर नहीं रहूँगा, वे मेरे निकट नहीं आएंगे। जन-साधारण अपनी असुविधाओं को वाणी नहीं देता-विशेषकर शासक वर्ग के सामने। वह डरता है कि उसके असुविधा-वर्णन को शासन अपनी निन्दा, विरोध अथवा त्रुटि दर्शन न मान ले। यह कार्य केवल निःस्वार्थ साहसी, बुद्धिजीवी कर सकते हैं : वह द्रष्टा, ऋषि-मुनि, जो राजाश्रय को तुच्छ मान, वनों में अपने आश्रम बनाकर वास कर रहे हैं। वह लोग राजाश्रय को महत्त्व नहीं देते, अतः वह राज्य से अपनी रक्षा की याचना करने भी नहीं आएंगे। गुरु ने स्पष्ट कहा था, मुझे तापस वेश में उन ऋषियों के निकट जाकर, उनसे समान धरातल पर मिलना होगा। और उनकी याचना के बिना ही उनकी रक्षा करनी होगी। यदि किसी समय मेरा व्यक्तिगत बल तथा दिव्यास्त्रों का ज्ञान, उनकी रक्षा में असमर्थ हुआ, तो सेना की आवश्यकता पड़ेगी। किंतु लक्ष्मण! वह सेना अयोध्या की
वेतन-भोगी सेना नहीं होगी।''
''कौन-सी सेना होगी वह?'' लक्ष्मण हैरान थे।
''कोई बाहरी सेना आकर किसी के लिए कोई युद्ध जीत दे तो निश्चित रूप से वह कार्य नहीं हो सकता, जो जन-सामान्य में जागृति लाकर, उन्हीं को प्रबुद्ध बनाकर, उसी पीड़ित, जाग्रत जनता के बीच में तैयार की गई सेना से हो सकता है। लक्ष्मण! मैं नहीं जानता कि मुझे सेना की आवश्यकता कहां पड़ेगी। कब पड़ेगी। कौन-सी सेना मेरी सहायता के लिए प्रस्तुत होगी। किंतु, जिस कार्य के लिए राम दंडक जा रहा है, वह यही है कि प्रत्येक जन-साधारण अपनी रक्षा के लिए प्रबुद्ध हो, स्वाश्रित हो। उसमें प्राण फूंकना मेरा कार्य है-उन्हें मार्ग दिखाना, उनका नेतृत्व करना। जब जनता जाग उठती है, तो बड़े-से-बड़ा अत्याचारी भी उसके सम्मुख टिक नहीं सकता। इसलिए मैं तापस वेश में एकाकी ही वन जाऊंगा।''
''यह सब ठीक है भैया।'' लक्ष्मण के मन में अब भी अड़चन थी, ''फिर भी अयोध्या का राज्य कैकेयी के हाथों में छोड़ इस प्रकार निष्कासित होकर जाना तो शोभा नहीं देता। सत्ता पर अधिकार कर, उसे किसी उचित व्यक्ति को सौंपकर भी तो वन जाया जा सकता है।''
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