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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14994
आईएसबीएन :9788181431950

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अवसर

''नहीं भाभी!'' लक्ष्मण बोले, ''हमारे समस्त संगठन सहिष्णु और सहनशील हैं।''

"जैसे तुम हो देवर!'' सीता मुस्कराई।

"उग्रता में भैया जैसे और सहिष्णुता में मुझ जैसे।...''

लक्ष्मण की बात, भागते आते हुए एक ब्रह्मचारी ने काट दी। वह काफी तेजी से भागता हुआ आया था, और हांफ रहा था।

''आर्य कुलपति!'' उसने त्रिजट को सम्बोधित किया, ''अयोध्या की दिशा से एक राजसी रथ बड़ी तेजी से इस ओर बढ़ता हुआ देखा गया। अत्यल्प समय में यहां आ पहुंचेगा।''

लक्ष्मण ने अपना धनुष पकड़ा और उठकर खड़े हो गए।

"ठहरो धैर्यशील देवर!'' सीता ने हाथ से संकेत किया।

''थम जाओ लक्ष्मण!'' राम हंसे, "मुझे अनिष्ट की तनिक भी आशंका नहीं है। अभी अयोध्या का शासन, सम्राट् के हाथ में है। और फिर एकाकी रथी हमारा क्या कर सकता है! संभव है, कोई महत्त्वपूर्ण समाचार हो।''

उसी क्षण, दो ब्रह्मचारी, समाचार देने के लिए उपस्थित हुए, "आर्य कुलपति! अयोध्या से आर्य सुमंत, सम्राट् के संदेश के साथ आए हैं।''

"उन्हें सादर लिया लाओ।" त्रिजट ने कहा।

शेष लोग मौन रहे। क्या है सम्राट् का संदेश? ऐसी कौन-सी बात है, जो सम्राट् अयोध्या में नहीं कह सके; और उसके लिए पीछे से सुमंत को भेजा गया है। क्या सम्राट् की ओर से कोई गुप्त संदेश है?...

सुमंत आए। राम ने उन्हें प्रणाम किया। चारों ओर स्तब्ध मौन देखकर वे समझ गए कि सब उनकी प्रतीक्षा में थे। वे उच्च स्वर में बोले, ''आर्य! आपके चले आने के पश्चात् राजमहल में वाद-विवाद तो अनेक हुए हैं, किंतु स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है...। सम्राट् के आदेश से, मैं एक श्रेष्ठ रथ लेकर आपकी सेवा में आया हूँ। उनकी इच्छा है कि रथ में आप लोगों को घुमाकर-फिराकर, वन्य जीवन का परिचय करा दूं। आप लोग ये देखे लें कि जानकी किसी भी प्रकार वन्य-जीवन की कठिनाइयां नहीं सह पाएंगी। अतः आप अयोध्या लौट चलें।''

"तात सुमंत!'' राम के अधरों पर मोहक मुस्कान थी, "रथ की हमें बड़ी आवश्यकता है, हमें रात से पूर्व तमसाँ-तट और कल अवश्य ही श्रृंगवेरपुर तक पहुंचना है। श्रृंगवेरपुर तक आप हमें पहुंचा दें। वन्य-जीवन दिखाकर लौटाने की बात आप न सोचें। लौटना असंमव है।'' "लौटना असंभव है।'' सुमंत का स्वर हतप्रभ था।

"पूर्णतः।''

"जानकी भी नहीं लौटेंगी?''

"नहीं।'' सीता, राम से भी अधिक दृढ़ थी।

सुमंत उनको देखते रहे, जैसे समझ न पा रहे हों कि क्या कहें। कुछ संभलकर बोले, ''सम्राट् की आशंका पूर्ण हुई। वे जानते थे कि तुम नहीं लौटोगे। पर पिता का मन...।'' उनकी मुद्रा बदली, जैसे युद्ध में कोई योद्धा पैंतरा बदलता हो, "राम! सम्राट् ने अपनी पुत्र-वधू के लिए कुछ वस्त्राभूषण भिजवाए हैं। ये राजकोष से नहीं, सम्राट् के निजी कोष से हैं। इन पर कैकेयी का कोई अधिकार नहीं है। सम्राट् के साथ-साथ राजगुरु ने भी इन्हें ग्रहण करने का अनुरोध किया है।''

सीता ने आँखों में संकोच मरे, क्षण-भर राम को देखा, जैसे सोच रही हों कि उत्तर राम देंगे या वे स्वयं दें। जब राम कुछ नही बोले, तो स्वयं संबोधित हुईं, "तात सुमंत! यह सम्राट् का अनुग्रह है, किंतु मैं वस्त्राभूषण अयोध्या में त्याग आई हूँ। अब और आभूषण लेकर क्या करूंगी? तापसी द्वारा वस्त्राभूषण ग्रहण किए जाने में क्या औचित्य है?''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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