उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
सुमंत का मुखमंडल मुरझाकर एकदम दीन हो गया; जैसे हरी फसल पर ओले पड़ गए हों। उनकी आँखें डबडबा आई। वाणी रुंध गई। कांपते कंठ से बोले, ''वैदेही! वृद्ध ससुर की भावनाओं पर निष्ठुर आघात मत करो। पुत्रि! अपनी संतान से एक निष्ठुर मोह होता है; किंतु यह वृद्ध तुम्हें बताना चाहता है कि पुत्र-वधू के प्रति श्वसुर की भावना, पिता की भावना से भी सूआ और कोमल होती है। जो कुछ वह अपनी पत्नी और संतान के लिए नही कर सकता; समर्थ होने पर अपनी पुत्र-वधू तथा पौत्र-पौत्रियों के लिए करना चाहता है। सम्राट् की भावना का अनादर न करो सीते।''
सुमंत की अवस्था देख, सीता स्तन्य रह गई, जैसे वे सुमंत न हों, स्वयं दशरथ हो। अपने विवाह के पश्चात सीता ने सुमंत को बहुधा राजमहलों में देखा था, किंतु यह कभी नहीं सोचा था कि वह इस परिवार से, भावनात्मक धरातल पर भी इस सीमा तक जुड़े हुए हैं, विशेषकर सम्राट् से। तभी तो सम्रा़ट् ने उन्हें अपने निजी सारथी से मंत्री तक के दायित्व सौंप रखे थे...! सीता ने सुमंत के इस रूप को कभी नहीं देखा था। सुमंत इतने पीड़ित थे, तो स्वयं सम्राट् कितने पीड़ित होंगे...
''आर्य!'' सीता ने मधुर स्वर में कहा, ''आप स्वयं को मेरी स्थिति में रखकर सोचें। अपना धन-धान्य दान कर यदि श्वसुर की भेंट स्वीकार करूंगी तो क्या यह त्याग का नाटक मात्र नहीं होगा?''
"तात!'' राम बोले, "मेरी ओर से भी सोचिए। अयोध्या से स्वयं खाली हाथ निकल आऊं और सीता के माध्यम से धन-संपत्ति साथ ले चलूं क्या वह तपस्वी जीवन जीना होगा?''
"मैं तर्क नहीं कर सकता।'' सुमंत कातर स्वर में बोले, "मेरा तर्क तो मात्र भावना का है।''
"राम!'' सुयज्ञ बोले, "विवाद अनावश्यक है। देवी इस भेंट को अंगीकार करें। सम्राट् ने कुछ सोच-समझकर ही ये वस्त्राभूषण भेजे हैं। आप शस्त्रास्त्र ले जा रहे हैं, सीता को वस्त्राभूण ले जाने दे। ये भी एक प्रकार के शस्त्रास्त्र ही हैं। समय आने पर आप सब की रक्षा करेंगे। धन भी अपने-आप में एक बल है-उसकी क्षमता बहुत बड़ी है।''
"ग्रहण करें देवी वैदेही!'' मंत्री चित्ररथ ने कहा।
''ग्रहण करें भाभी!'' लक्ष्मण ने भी उसी स्वर में कहा, और फिर धीरे से बोले, ''अपनी देवरानी को आभूषण तो पहनाएंगी ही, राक्षसी हुई तो क्या, वानरी हुई तो क्या, मानवी हुई तो क्या?''
सीता मुस्कराकर चुप रह गईं। सुमंत के संकेत पर ब्रह्मचारियों ने वस्त्राभूषणों का पिटारा, सीता के सम्मुख रख दिया। सीता ने उसमें से दो-एक आभूषण धारण कर लिए-यह ग्रहण की स्वीकृति थी।
सुमंत प्रसन्न हो उठे, "मैं धन्य हुआ, देवी जानकी।''
भोजन समाप्त होते ही, चलने की व्यवस्था की गई। राम, सीता, लक्ष्मण तथा कुछ ब्रह्मचारी, सुमंत के रथ में आरूढ़ हुए। सुयज्ञ अपने अनेक ब्रह्मचारी शिष्यों के साथ, अपने रथ में थे। चित्ररथ कुछ नागरिक युवाओं के साथ अपने रथ में बैठे। शेष लोग त्रिजट आश्रम के छकड़ों पर सवार हुए। सार्थवाह चल पड़ा।
सुमंत के घोड़े शक्तिशाली और वेगवान थे। चित्ररथ तथा सुयज्ञ के घोड़े भी अच्छे थे। किंतु आश्रम के छकड़ों के घोड़े उस गति से नहीं चल सकते थे। अतः सबको धीमी गति से चलना पड़ रहा था।
रथ और छकड़े बढ़ते चले गए। सूर्य ढलने लगा था। धूप में वह प्रखरता नहीं रही थी। सब लोग सहसा ही चुप हो गए थे। कुछ अतीत की स्मृतियों में खो गए थे, कुछ को भविष्य की चिंता थी; वर्तमान में तो केवल चलना ही था।
''क्या सोच रहे हो सौमित्र?'' राम ने पूछा।
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