उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
''यह प्रदेश राक्षसों के आधिपत्य में है, ऐसा तो नहीं कहूँगा।'' कालकाचार्य बोले, 'किंतु राक्षस प्रभावित अवश्य है। ऋषि-आश्रमों के अतिरिक्त भीलों के असंख्य ग्राम भी हैं, किंतु इच्छा राक्षसों की ही चलती है। पयहां दिन-प्रतिदिन राक्षस-तंत्र प्रबल होता जा रहा है। तुम्हारे शस्त्र देखकर राक्षस भड़केंगे राम! क्योंकि वे प्रत्येक शस्त्रधारी को अपना शत्रु मानते हैं। तुमसे मिलने-जुलने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर उनकी वक्र दृष्टि पड़ेगी, और वत्स! तुम्हारी युवती पत्नी, किसी भी प्रकार सुरक्षित नहीं है।'' राम अपनी आँखों से कालकाचार्य को तोलते रहे। एक भीरु बुद्धिजीवी उनके सामने बैठा था।
''आर्य शस्त्र को विपत्ति का कारण समझते हैं?''
''हा पुत्र! शस्त्र तुम्हारी रक्षा कम करेगा जोखिम को अधिक आमंत्रित करेगा। इसीलिए मैं आश्रम में शस्त्र-प्रशिक्षण की अनुमति नहीं देता।''
''एक व्यक्तिगत प्रश्न पूछना चाहता हूँ।'' राम ने कालकाचार्य की आँखों में देखा, ''अन्यथा तो न मानेंगे?''
कालकाचार्य की आँखों में क्षण-भर के लिए परेशानी झलकी, उन्होंने स्वयं को नियंत्रित किया, ''पूछो।''
''यह स्थान निरापद नहीं है तो आर्य कहीं अन्यत्र क्यों नहीं चले जाते, तपस्वी का जीवन छोड़ नागरिक क्यों नहीं बन जाते?''
कालकाचार्य की आँखें उदास हो गईं, ''पुत्र! अनेक कार्य ऐसे होते हैं, जिनका दो-टूक कारण नहीं बताया जा सकता। अब तुमसे क्या कहूँ। स्वभाव से तपस्वी हूँ, कुछ और हो नहीं सकता। तपस्वी नगरों में नहीं बसते; और राम! जन्मभूमि छोड़, अन्यत्र किसी अपरिचित स्थान पर बसने का उद्यम भी जुटा नहीं पाता।'' वह सायास-मुस्कराए, ''कायर नहीं हूँ। भीरु हूँ, और अतिरिक्त रूप से सावधान भी।''
राम के जाने के पश्चात लक्ष्मण फिर से अपने निर्माण कार्य में जुट गए। गृहस्थी का कोई छोटा-मोटा कार्य भी सीता के पास नहीं था। सोच ही रही थी कि वे प्रातः प्राप्त की गई शस्त्र-विद्या का अभ्यास करें या लक्ष्मण के न चाहने पर भी उनके निर्माण-कार्य में सहायता करें।
तभी सुमेधा आश्रम की ओर आती दिखाई पड़ी। सीता को सहज सुमेधा का, अकस्मात् ही व्याकुल होकर भाग जाना याद आ गया...
''सवेरे तुम इतनी जल्दी भाग क्यों गइं सुमेधे?'' पास आने पर सीता ने पूछा, ''मुझे लगा कि तुम कुछ भयभीत भी थी।''
''ओह दीदी! सुमेधा बोली, ''मुझे स्वामी के लिए जल ले जाना था न। देर हो जातीं तो वह मार-मार कर मेरी हड्डियां तोड़ देता।''
''तुम्हारा पति?''
''नहीं दीदी।'' सुमेधा कुछ संकुचित हुई, ''स्वामी! मेरा स्वामी, मेरे पिता का स्वामी, इस वन का स्वामी...''
सीता चकित थी, ''क्या कह रही हो सुमेधे? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का स्वामी पैसे हो सकता है! कुछ स्थानों पर स्त्रियां अपने पति को गृह स्वामी के स्थान पर 'स्थामी' कहती है किंतु वह संबोधन मात्र है। स्नेह और प्रेम मानने की विधि है। प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में जन्म लेता है और स्वतंत्र रूप से जीवन यापन करता है। उसका कोई स्वामी कैसे हो सकता है। क्या तुम्हारे यहां अभी तक दास-प्रथा प्रचलित है?''
''हां! हां!!'' सुमेधा अत्यन्त सरल भाव से बोली, ''ऐसी ही बातें ऋषि वाल्मीकि ने भी हमारे गोद के कुछ लड़की को सिखाई थीं। लड़कों ने उन बातों को सच मान लिया था, और स्वामी से झगड पड़े थे। स्वामी ने उन सबको बांधकर कोठरी में डाल दिया था; और यातना दे-देकर एक-एक को मार डाला। बाद मे उसने ऋषि के आश्रम के कुछ लोगों के भी हाथ-पैर तोड़ दिए थे। अब हमारे ग्राम में इन बातों पर कोई विश्वास नहीं करता। भला, सब लोग समान कैसे हो सकते हैं-राक्षस, राक्षस हैं और भील, भील...''
''तो तुम्हारा स्वामी राक्षस है?'' सीता ने कुछ भांपते हुए पूछा।
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