उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
''हां, दीदी! पहले किरात था। जब से धनवान हुआ है राक्षस हो गया है। दिन-प्रतिदिन उसका धन भी बढ़ रहा है और बल भी।''
''पर वह इस वन का स्वामी कैसे हो गया? क्या वन उसने उगाया है, यह धरती उसने बनाई है। धरती उस पर रहने वालों की सामूहिक संपत्ति होती है। वन, नदियां, पर्वत तथा खानें-संपूर्ण समाज की संपत्ति होती है! शासक, जनता की ओर से ही उनका प्रबंध करता है।''
सुमेधा जोर से हँस पड़ी, ''तुम्हारी बात कोई नहीं मानेगा दीदी! कोई भी नहीं। किसको अपनी जान प्यारी नहीं है! किसे अपनी हड्डियां तुडवानी हैं!''
''तुम उसके दास क्यों हो?'' सीता ने बातों की दिशा मोड़ी।
''मेरे पिता को किसी अपराध के लिए स्वामी ने आर्थिक दंड दिया था। पिता के पास धन नहीं था, स्वामी ने ही पिता को ऋण दिया! पिता वह ऋण चुका नहीं पाए हैं! इसलिए वे दास हुए, उनकी पत्नी होने के कारण मेरी मां, और पुत्री होने के कारण मैं उनकी दासी हुई। दासों की संतान भी तो दास ही होती है।''
सुमेधा अपना ज्ञान प्रदर्शित कर, प्रसन्न थी।
''तुम और तुम्हारे माता-पिता-तीनों क्या काम करते हो?''
''जो स्वामी कहे।'' सुमेधा ने बताया, ''पानी लाना। जमीन खोदना। पेड़ काटना। खाना पकाना। बरतन मांजना। स्वामी और उसके परिवार की सेवा करना। जो भी स्वामी कहे।''
''तुम्हारा विवाह होगा?''
सुमेधा फिर संकुचित हो गई, ''यह तो स्वामी की इच्छा पर है। वह चाहें, मेरा विवाह कर दें। वह चाहें, मुझे किसी को दे दें। वह चाहें मेरा भोग करें। वह चाहें मुझे खा जाएं...''
सीता हत्प्रभ-सी बैठी सुमेधा को देखती रहीं। यह लड़की कितनी सहजता से यह सब कह रही है। न केवल कह रही है, सब कुछ स्वीकार भी कर रही है। और उसे कहीं यह बोध नही है कि यह गलत है, यह अन्याय है। इसका विरोध होना चाहिए...और यह लड़की यहां के जन- सामान्य की प्रतीक है। सीता समझ नहीं पा रही थी कि सुमेधा को कैसे समझाएं। उससे तर्क करें, उसे बल दें, उपदेश दें, धिक्कारे...
''अच्छा! मैं चलूं दीदी।'' सुमेधा उठ खड़ी हुई।
''सुनो सुमेधा!'' उसके उठ खड़े होने से सीता चौंक उठीं, ''मेरा एक काम करना बहन। मेरे पास कोई घड़ा नही है। पत्तों के दोनों में पानी लाने में काफी असुविधा रहती है। मुझे एक घड़ा कहीं से ला दोगी? तुम्हारे ग्राम में कोई कुंभकार है क्या?''
''हां दीदी! मैं कुंभकार को ही तुम्हारे पास भेज दूंगी। अपनी इच्छानुसार घड़ा बनवा लेना।...अच्छा दीदी!''
सुमेधा, बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए, चपलतापूर्वक भाग गई।
उन तीनों की दृष्टि क्रमशः निकट आती हुई उस आकृति पर लगी हुई थी। पहचान की सीमा में आते ही, तीनों न उसे प्रायः साथ-साथ पहचाना-वह वाल्मीकि आश्रम का मुखर था।
''मुखर! इस समय यहां।'' सीता चकित थीं।
''कदाचित् ऋषि ने कोई सन्देश भेजा है।'' लक्ष्मण बोले।
मुखर के निकट आने पर, राम ने सहज भाव से हँसकर कहा, ''स्वागत मित्र मुखर! आओ बैठो! तुम अच्छे समय पर आए। भोजन तो हमारे ही साथ करोगे न? अब आश्रम लौटने का तो समय नहीं रहा।''
हाथ जोड़कर मुखर ने सबका अभिवादन किया, और अत्यन्त थकी हुई मुद्रा में उनके निकट बैठ गया। उसने बारी-बारी तीनों के भावों को देखा और संकुचित, मद्धम स्वर में बोला, ''आर्य! यदि आपको असुविधा न हो तो मैं आज रात आपके आश्रम में ही रुकना चाहूँगा। मेरी धृष्टता क्षमा करें-किंतु मुझे विस्तार से कुछ निवेदन करना है!''
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