उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
राम ने लपलपाती अग्नि के प्रकाश में उनके चेहरों को देखा : कुंभकार ठीक कह रहा था। कुंभकार के मुख-मंडल पर जोखिम तथा दुस्साहस की उत्तेजना थी; किंतु झिंगुर और सुमेधा के चेहरे मृत्यु की ठंडी राख के समान बुझे हुए थे। राम ने झिंगुर के कंधे पर हाथ रखा, ''तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है बाबा?''
झिंगुर ने उनकी ओर देखा, पर उसकी दृष्टि अधिक देर टिक न सकी। उसने अपना मुख फेर लिया। वह अंधकार में देख रहा था, ''मैं आपके प्रति अविश्वास की बातें कैसे कहूँ; पर मुझे तुंभरण की शक्ति, दुष्टता दोनों पर विश्वास है। उसके हाथों से कोई भी नहीं बचा...।''
''तो फिर तुम आ क्यों गए?''
''सुमेधा आ रही थी-मैं क्या करता। मुझे उससे अधिक प्रिय और कुछ नहीं है। तुंभरण के हाथों मेरी अन्य कोई संतान नहीं बची। एक यही शेष है, इसे नहीं छोड़ सकता।''
''और तुम क्यों चली आई सुमेधा?'' राम ने पूछा।
सुमेधा कुंभकार की ओर देख रही थी, ''मैं कुंभकार से प्रेम करती हूँ। यह आ रहा था, इसलिए मैं भी आ गई।''
''तुम्हारी मां नहीं आई सुमेधा?'' सीता ने पूछा।
''किसी भी प्रकार तैयार नहीं हुई। उसे छोड़ आना पड़ा।''
''अच्छा सुनो बंधुओ!'' राम का स्वर कुछ ऊंचा हो गया, ''निस्संदेह तुम लोगों ने जोखिम का काम किया है, किंतु इस आश्रम में भीतर प्रवेश करने के पश्चात् तुम्हारा जोखिम समाप्त हो चुका है। तुम्हारी रक्षा का दायित्व मुझ पर है, सौमित्र पर है-सक्षम होने पर सीता और मुखर पर भी होगा। रात-भर विश्राम करो। कल से तुम्हारी शस्त्रशिक्षा आरंभ होगी, ताकि आश्रम के बाहर भी हमारे निकट न रहने पर भी तुम अपनी तथा अपने साथियों की रक्षा कर सको।''
''तुम्हारा नाम क्या है मित्र?'' लक्ष्मण ने पूछा, ''नाम न जानने के कारण, तुम्हें संबोधित करने में काफी परेशानी हो रही है।''
''कुंभकार!''
''यह क्या नाम हुआ?''
''अन्य किसी शब्द से मुझे किसी ने संबोधित ही नहीं किया।''
''तो आज से तुम्हारा नाम 'उदघोष' होगा मित्र।'' राम बोले, ''तुमने इस संपूर्ण क्षेत्र में, आज से स्वतंत्रता का उद्घोष किया है।''
कुंभकार मुस्करा पड़ा। ''आओ, अब भोजन करें।'' सीता ने सुमेधा का हाथ पकड़ अपने पास बैठाया, ''तुम यहां बैठो सखि!''
सुमेधा और उद्घोष बैठ गए, किंतु झिंगुर नहीं बैठा। सबकी प्रश्नवाचक दृष्टि उसकी ओर उठ गई। झिंगुर के चेहरे पर कुछ इतने मिश्रित भाव थे कि समझना कठिन था कि वह क्या सोच रहा था-वह प्रसन्न भी था और पीड़ित भी, उसके चेहरे पर श्रद्धा भी थी और अविश्वास भी, मार्ग उसके सामने था और उस पर पग भी नहीं उठ रहे थे।
''प्रभु!''
''मैं प्रभु नहीं हूँ।'' राम मुस्कराए, ''मैं एक साधारण वनवासी हूँ, तुम मुझे राम कहो बाबा!''
''भद्र राम'' झिंगुर और भी संकुचित हो गया, ''इन बच्चों का अपराध क्षमा करना, ये लोग भोजन की इच्छा से आपके साथ बैठ गए हैं। कड़ी भूख ने इनकी बुद्धि असंतुलित कर दी है...''
कोई नहीं समझा कि झिंगुर क्या कहना चाह रहा है। क्षण-भर सब कुछ अनबूझा ही रहा। पर, तब झिंगुर फिर बोला, ''हम जाति के भील हैं भद्र! और स्थिति से तुंभरण के दास! हम आपके साथ बैठकर...''
राम खिलखिलाकर हँस पड़े, ''भोजन परोसो सीते।''
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