उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
वे झिंगुर को संबोधित हुए, ''बाबा! इसे भूल जाओ कि तुम्हें क्या बताया गया है कि तुम क्या हो। याद केवल यह रखो कि तुम एक मनुष्य हो, वैसे ही जैसे अन्य मनुष्य हैं। बड़े-छोटे, ऊंच-नीच, दास-स्वामी, जाति-पाति के संबंध मनुष्य निर्मित हैं; और उनका निर्माण उन्होंने किया है, जिन्हें उनसे कोई लाभ है। मैं मनुष्य में मानवीय संबंध के अतिरिक्त दूसरा कोई संबंध नहीं मानता।...और इस समय तो तुम राम के आश्रम के
सदस्य हो। तुम्हारी जाति, वर्ण, गोत्र, स्थिति-सब कुछ वही है, जो राम की है। बैठो और शान्त मन से भोजन करो।''
राम ने झिंगुर का हाथ पकड़कर, उसे अपने साथ बैठा लिया। झिंगुर बैठ तो गया, किंतु सबने ही लक्ष्य किया कि वह सहज भाव खा नहीं पा रहा है। जो कुछ उसने खाया भी, वह उसकी भूख की दृष्टि से बहुत कम था।
भोजन के पश्चात् उद्घोष ने अपनी बात कही, ''राम! कल सवेरे ही तुंभरण को मालूम हो जाएगा कि हम लोग गांव से भाग गए हैं। और यह पता लगाते देर नहीं लगेगी कि हम यहां आए हैं। और यह पता लगते ही वह अपने बंधु-बांधवों को लेकर सशस्त्र आक्रमण करेगा। वह हमें गांव से भागने और आपको हमें आश्रय देने का दंड देना चाहेगा...''
''तुम आश्वस्त रहो मित्र!'' लक्ष्मण ने उसकी बात पूरी नहीं होने दी, ''यह तो समय आने पर देखा जाएगा कि कौन किसको दंड देता है। जब तक तुम्हें तुंभरण के आक्रमण का भय हो, अथवा जब तक तुम द्वन्द्व युद्ध की दृष्टि से पूर्णतः समर्थ न हो जाओ, तब तक मेरी कुटिया में रहो, उसके पश्चात् ही तुम्हारे लिए अलग कुटीर बनाएंगे।''
''मैं भयभीत अवश्य हूँ, सौमित्र! किंतु अपनी असमर्थता को जानता अवश्य हूँ।''
''जब तक तुम असमर्थ हो तब तक हमारी सामर्थ्य पर भरोसा रखो।'' राम मुस्कराए, ''सौमित्र! सुमेधा और झिंगुर के लिए अतिथिशाला में प्रबंध कर दो। उद्घोष तुम्हारे अथवा मुखर के कुटीर में टिक जाएगा। कल इनके लिए कुटीर-निर्माण तथा शस्त्र-शिक्षा।''
प्रातः राम और सीता उठकर अपनी कुटिया के बाहर आए, तो उद्घोष सामने खड़ा था। वह सहज नहीं था, उसका संवलाया हुआ गेहुआँ रंग, इस समय एकदम पीला पड़ गया था।
राम विस्मित हुए, ''तुम यहां कब से खड़े हो उद्घोष? जल्दी उठ गए या तुम्हें रात को नींद नहीं आई?'' उद्घोष ने कोई उत्तर, नहीं दिया। वह केवल फटी-फटी आँखों से उन्हें देखता रहा।
''क्या बात है'' राम मुस्कराए, ''रात कहीं तुंभरण से भेंट तो नहीं हो गई?''
''नहीं आर्य!'' वह खोए-से स्वर में बोला, ''तुंभरण से भेंट तो नहीं हुई; किंतु लगता है कि यहां रात को तुंभरण या उसके साथी आए अवश्य थे।...सुमेधा और झिंगुर अतिथिशाला में नहीं हैं...।''
''क्या?'' सीता के मुख से विस्मय-भरा चीत्कार निकला।
''उद्घोष! तुम सौमित्र को बुलाओ।''
राम, सीता को साथ लिए हुए, अतिथिशाला की ओर बढ गए।
लक्ष्मण, मुखर तथा उद्घोष के भी आने में अधिक देर नहीं लगी; किंतु तब तक राम कुटिया का अच्छी प्रकार निरीक्षण कर चुके थे। अतिथिशाला पर आक्रमण उसे तोड़ने, उस पर किसी प्रकार के बलप्रयोग का वहां चिह्न नहीं था।...रात में किसी ने भी किसी का कोलाहल नहीं सुना था। मुखर की कुटिया अतिथिशाला से बहुत दूर भी नहीं थी। वह यह मानने के लिए रत्ती भर भी तैयार नहीं था कि बाहर से कोई आया हो; सुमेधा और झिंगुर को बलात ले गया हो और मुखर ने एक भी शब्द न सुना हो।
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