उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
''यह संभव ही नहीं है।'' वह अत्यन्त रोष से बोला, ''मुखर के कान ऐसे नहीं हैं। रात को आश्रम का एक पत्ता भी खड़केगा तो मुखर के कान झनझना उठेंगे।''
''तो इसका एक ही अर्थ है सुमेधा और झिंगुर अपनी इच्छा से रात को आश्रम से निकल भागे हैं।'' उद्घोष का स्वर पहले से भी अधिक दीन हो गया।
''पर क्यों?'' सीता जैसे अपने आप से पूछ रही थीं।
''क्योंकि सुमेधा मुझसे प्रेम नहीं करती। उसे अपनी मां अधिक प्यारी है, वह कायर बाप झिंगुर प्यारा है। मैं उसे प्यारा नहीं...''
लक्ष्मण आगे बढ़कर उसे संभाल न लेते तो उद्घोष अवश्य ही चक्कर खाकर गिर पड़ता। वह लक्ष्मण का सहारा लेकर पेड़ की छाया में बैठ गया। शेष लोग भी उसके आसपास बैठ गए।
राम सोच रहे थे : यदि सुमेधा और झिंगुर को बलात् ले जाया गया होता तो उनकी चिंता तुरंत की जानी चाहिए थी, किंतु परीक्षण से जिस निष्कर्ष पर वे लोग पहुंच रहे थे, कदाचित् वही ठीक था। वे पिता-पुत्री अपनी इच्छा से आश्रम छोड़कर, रात के अंधेरे में अपने गांव लौट गए थे। उनकी चिंता का कोई लाभ नहीं था। इस समय तो उद्घोष की चिंता की जानी चाहिए थी। कदाचित् उसने अपने जीवन का दांव
सुमेधा पर लगाया था, और सुमेधा उसे छोड़ गई थी। उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। यदि इस समय उसे न संभाला गया तो कुछ अघटनीय भी घट सकता है।
राम ने स्नेहपूर्वक उद्घोष के कंधे पर हाथ रखा और अत्यन्त कोमल वाणी में बोले, "तुम ऐसा क्यों मानते हो मित्र, कि सुमेधा तुमसे प्रेम नहीं करतीं। उसका अपने माता-पिता से प्रेम तुम्हारे प्रेम के मार्ग में तो नही आता। संभव है कि वह पीछे छूट गई अपनी माता के प्रेम में लौट गई हो।''
उद्घोष का वह शरीर, जो क्षण-भर पहले तक सर्वथा प्राणहीन लग रहा था, भयंकर आक्रोश में तप उठा, ''नहीं! यह बात नहीं है। अब तक मैं समझता नहीं था, पर आज इस सुमेधा को अच्छी तरह समझ गया हूँ...। मेरे प्रेम से उसे क्या मिलता? गांव को छोड़ना पड़ता। इस या उस आश्रम में रहना पड़ता। प्राणों का जोखिम बना रहता। संभव है, पीछे गांव में, राक्षस उसकी मां की हत्या कर देते। मैं हूँ क्या? एक कुंभकार। मैं उसे क्या दे सकता था। एक निर्धन व्यक्ति का प्रेम दे ही क्या सकता है...''
"उद्घोष।'' सीता ने टीका।
"कहने दो सीते।'' राम ने कहा।
उद्घोष बोलता गया, "सुमेधा ने ठीक किया, लौट गई। अब उसकी मां और झिंगुर को कोई कुछ नही कहेगा। उसे भी कुछ नही कहेगा। राक्षसों की सार्वजनिक भोग्या होकर रहेगी, उनकी जूठन खाएगी। मेरा पता बताकर, मेरी हत्या करवाने में उनकी सहायता करेगी तो संभव है जब वे मेरा वध कर, मुझे खाने लगें तो मेरे शरीर की एक-आध जूठी हड्डी उसकी तरफ भी फेंक दें...'' वह हांफता हुआ, भाव-शून्य आँखों से बार-बार सबकी ओर देखता रहा, और फिर अपने भीतर डूब गया...''और मैं क्या-क्या स्वप्न देखता था। मैं तुंभरण राक्षस का दास नहीं रहूँगा। मैं किसी सुन्दर स्थान में, एक छोटी-सी कुटिया बनाकर रहूँगा। सुमेधा मेरी पत्नी होगी। हमारे छोटे-छोटे सुन्दर बच्चे होंगे। हम दोनों मिलकर परिश्रम करेंगे और अपनी गृहस्थी चलाएंगे। अवकाश के समय, मैं अपने घर के लिए बर्तन बनाऊंगा, उन पर सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी अंकित करूंगा। अपने बच्चों के लिए छोटे-छोटे खिलौने बनाऊंगा। कुछ अन्य मूर्तियां बनाऊंगा। मैं मूर्तिकार बनूंगा...'' उसने फिर बारी-बारी एक-एक व्यक्ति के चेहरे को देखा और अंत में उसकी आँखें राम के मुख मंडल में टिक गई। वह बोला तो उसका स्वर हताश था, "मैंने जीवन मे बहुत अधिक तो कुछ नहीं चाहा, क्या ईश्वर की सृष्टि में मेरा इतना छोटा-सा स्वप्न पूरा नहीं हो सकता राम?''
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