उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
राम ने उसे स्नेह-भरी आँखों से देखा, और फिर उनकी आँखों और अधरों से मोहक मुस्कान झरने लगी, ''सुनो उद्घोष! इस सृष्टि में मनुष्य का बड़े-से-बड़ा स्वप्न पूरा होता है, किंतु मनुष्य की बनाई हुई इस व्यवस्था में नदी के किनारे पड़ी हुई मछली के लिए एक बूंद पानी भी नहीं है। तुंभरण तथा उसके जैसे सत्ताशाली राक्षसों की बनाई हुई इस दुष्ट व्यवस्था में तुम एक दास कुंभकार पैदा हुए हो और दास कुंभकार ही मरोगे। इसमें सुमेधा ही नहीं, सुमेधा जैसी सारी किशोरियां, धन और सत्ता सम्पन्न राक्षसों की भोग्याएं ही बन सकेंगी...पर स्वप्न देखना प्रत्येक मनुष्य का अधिकाए है। स्वप्न देखने वाला मनुष्य ही जीवंत मनुष्य होता है। यदि तुम्हारे गांव में स्वप्न देखने वाला उद्घोष जन्म न लेता, तो प्रत्येक कलाकार कुंभकार का जीवन बिताने को बाध्य होता। किंतु अब ऐसा नहीं होगा। तुमने स्वप्न देखा है, तुम उसे पूर्ण करने के लिए संघर्ष करो और अपने साथ संपूर्ण ग्राम को मुक्त करो। प्रत्येक उद्घोष और सुमेधा को मुक्त करो, प्रत्येक झिंगुर और उसकी पत्नी को मुक्त करो...''
"पर झिंगुर तो मुक्त होना नही चाहता।'' उद्घोष बोला।
"ऐसा मत कहो।'' राम फिर बोले, "झिंगुर हो या सुमेधा, अथवा सुमेधा की मां, मुक्त सब होना चाहते हैं; किंतु पहले उन्हें बताया तो जाय कि वे स्वतंत्र हो सकते हैं। उनका तन ही नहीं, मन भी नदी है। पहले उनके मन को मुक्त करो। उनको साहस दो, उनको आश्वासन दो। उनका मन मुक्त होगा तो वह स्वप्न देखेगा; मन स्वप्न देखेगा, तो तन मुक्त होगा...।''
''और सुमेधा के विषय में भी वह सब मत सोचो, जो तुमने अभी कहा है।'' सहसा बीच में सीता बोलीं, "वह तुम्हीं से प्रेम करती है, तभी तो तुम्हारे साथ चली आई। यदि उसका पिता अभी साहस नहीं जुटा पा रहा, उसकी मां का मन जोखिम नहीं उठा रहा; और वह दोनों से प्रेम करती है, तो उसके लिए उसे अपराधिनी नहीं ठहराया जा सकता...''
''आप सच कहती हैं देवि!'' उद्घोष के चेहरे का रंग लौट रहा था, "सचमुच सुमेधा मुझसे प्रेम करती है? क्या आप शपथपूर्वक यह बात कह सकती हैं?''
''यद्यपि सुमेधा ने मुझसे इस बात की चर्चा नहीं की।'' सीता बोलीं, "किंतु उसके हाव-भाव देखकर मैं शपथपूर्वक कह सकती हूँ कि वह तुमसे प्रेम करती है उद्घोष! उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करो।''
"उद्यम करो उद्घोष!'' लक्ष्मण बोले, "तुम्हारी प्रिया उस राक्षस के पास बंदिनी है। यह मत समझो कि वह अपनीं इच्छा से लौट गई है। लौटाया है उसे तुंभरण के आतंक ने। तुम उस आतंक को नष्ट करके ही उसे पा सकोगे। पराक्रम करो। थक-हारकर मत बैठो। संसार उद्यमी और पराक्रमी मनुष्य का है।''
उद्घोष उठकर खड़ा हो गया, "कदाचित् आप ही लोग ठीक कहते हैं। मैं ही भ्रमित था...। मैं सुमेधा को ही नहीं संपूर्ण ग्राम को तुंभरण के आतंक से मुक्त करूंगा।''
"साधु उद्घोष। साधु!'' राम बोले; ''आज से तुम्हारी भी शस्त्र-शिक्षा आरंभ होगीं।''
संध्या समय वाल्मीकि आश्रम से चेतन आया। वह बहुधा मुखर से मिलने आया करता था। सदा के समान, वह राम के समीप आ, अभिवादन कर खड़ा हो गया। किंतु उसके पश्चात न उसने आश्रम का समाचार पूछा, न मुखर से मिलने की उत्सुकता दिखाई।
राम ने ध्यान से देखा : चेतन गंभीर ही नही उदास भी था। उसका चेहरा बता रहा था कि वह अपना दुख छिपाने का नहीं, उसे विज्ञापित करने का प्रयत्न कर रहा था।
"क्या बात है चेतन?'' राम मुस्कराए, "ठीक तो हो? यह चेहरा कैसे लटका रखा है?" चेतन ने सिर उठाकर, एक बार राम को देखा और फिर से सिर झुका लिया।
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