उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
राक्षसों से भिड़ंत की बात जय ने कई बार सुनी थी, किंतु अधिकांशतः वे अकेले-दुकेले व्यक्ति को पकड़ते थे, वह भी अंधेरे-सवेरे। इस प्रकार दिन-दहाड़े इतने अधिक आश्रमवासियों पर आक्रमण की बात, उसने पहले नहीं सुनी थी! हां! सैनिक अभियानों की बात और थी, किंतु चित्रकूट-क्षेत्र में सैनिक अभियानों की बात भी कम ही सुनी जाती थी। आज क्या विशेष बात हुई थी कि उन लोगों ने इस प्रकार का दुस्साहस किया था। आश्रम के आधे से अधिक ब्रह्मचारी एक ही स्थान पर लकड़ियां काट रहे थे। यदि ब्रह्मचारियों ने साहस से काम लिया होता और भागने के बदले अपनी कुल्हाड़ी से राक्षसों का सामना किया होता तो कदाचित् यह स्थिति नहीं आती। किंतु, अधिकांश ब्रह्मचारी भाग निकलने में सफल हो गए थे। वे अपने उद्यम से निकल भागे थे, या राक्षसों ने उन्हें जान-बूझकर निकल भागने दिया था? राक्षसों ने इन्हीं पाँच मित्रों को पकड़ना चाहा था, या संयोग से वे ही नहीं भागे थे...? जय के मन में कुछ भी स्पष्ट नहीं था।...उसने अन्य लोगों की ओर देखा। उसके सभी मित्रों के चेहरों पर भय तथा प्रश्नों की भीड़ लग रही थी।
क्रमशः राक्षसों का अवरोध संकीर्ण होने लगा। पाँचों मित्र एक-दूसरे से सट गए। राक्षसों ने उन्हें पकड़ा, उनके हाथ पीठ पर बांध दिए और घुटनों, घूंसों तथा धक्कों की ठोकरों से उन्हें आगे बढ़ाने लगे।...
मार्ग अनजाना नहीं था। प्रत्येक ब्रह्मचारी जानता था कि यह मार्ग राक्षसों की बस्ती में जाता है, और इसलिए कोई ब्रह्मचारी पहले कभी इस मार्ग पर नहीं, चला था। आज उस मार्ग पर चलना ही नहीं था, लगता था, उनकी बस्ती में भी जाना पड़ेगा।...पर उन्हें बस्ती में ले जाने का प्रयोजन? यदि उनकी हत्या करने की इच्छा होती, तो अब तक वे उनका वध कर चुके होते। बंदी कर ले जाने का क्या अर्थ? क्या वे लोग दास बनाए जाएंगे?...या यातना देकर धीरे-धीरे मारे जायेंगे?...
राक्षस बस्ती में पहुंचते-पहुंचते, उनके नाक-मुंह बुरी तरह छिल चुके थे। बस्ती के एक मैदान में राक्षसों की भीड़ एकत्रित थी, और राक्षस-प्रमुख एक उच्च आसन पर बैठा था : जैसे कोई उत्सव होने वाला हो। ऐसा नहीं लगता था कि किसी आकस्मिक मुठभेड़ में सहसा ही राक्षसों ने उन्हें पकड़ लिया हो। निश्चित रूप से यह सब योजनाबद्ध रूप से हुआ था-अन्यथा, सारी राक्षस-बस्ती इस प्रकार उनकी प्रतीक्षा न कर रही होती।
किंतु यह सब क्या था? राक्षसों ने प्रत्येक ब्रह्मचारी को अलग-अलग वृक्ष के साथ बांध दिया। एक-एक के सामने आग जलाकर उसमें गर्म करने के लिए लौह शलाकाएं रख दी गईं।
सारे ब्रह्मचारी एकटक उस यातना-सामग्री की ओर देख रहे थे और उनका वर्ण भय से पीला पड़ता जा रहा था। राक्षस-प्रमुख ने आदेश दिया। दो कशाधारी आकर जय की दोनों ओर खड़े हो गए।
लगता था तैयारी पूरी हो चुकी है; अब नाटक आरंभ होगा। प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि राक्षस-प्रमुख पर लगी हुई थी। राक्षस-प्रमुख भीतर-ही-भीतर किसी आवेश में खौलता हुआ, थोड़ी-थोड़ी देर में बंदियों की ओर देख लेता था। सहसा उसने अपने आसन पर बैठे-बैठे ही चिल्लाकर पूछा, ''अयोध्या के भरत की सेना को यहां किसने बुलाया है? वह किस अभियान के लिए आई है?''
जय को लगा, वह मुस्करा पड़ेगा। इस जोखिम की घड़ी में भी जैसे उसका सारा मानसिक तनाव समाप्त हो गया था। क्या समझ रहे हैं, राक्षस? क्या सोचते हैं वे? क्या तपस्वियों ने भरत की सेना को राक्षसों से लड़ने के लिए बुलाया है?...भरत की सेना से भयभीत होकर कैसे बौखला गए हैं ये। जय ने अपना मन तथा स्वर संतुलित किया, ''भरत राम को अयोध्या लौटा ले जाने के लिए आए हैं।''
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