उपन्यास >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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अवसर
राक्षस-प्रमुख अविश्वास से हँसा, ''सुनो तपस्वी! यह कथा मैंने भी सुनी है। किंतु, मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ कि इन झूठी प्रचार-कथाओं पर विश्वास कर लूं। भरत स्वयं राज्य क्यों नहीं करता? और यदि वह दे ही रहा है तो राम क्यों राज्य को स्वीकार नहीं करता? फिर राम
को मनाने के लिए इतनी बड़ी सेना लाने की क्या आवश्यकता थी?''
''मैं नहीं जानता।'' जय आत्मविश्वास सहेजकर बोला, ''हमारे आश्रम का राम के आश्रम या अयोध्या के राज्य से कोई संबंध नहीं है। हम तपस्वी हैं; अयोध्या की राजनीति से हमारा क्या संबंध...''
''चुप रहो!'' राक्षस-प्रमुख चीखा, ''तुम सारे तपस्वी एक हो। प्रत्येक आश्रम का दूसरे आश्रम से संबंध है। तुम लोगों ने राम को, राक्षसों का विरोध करने के यहां बुलाया है! और जब राम असमर्थ दीखा, तो भरत को उसकी सेना सहित बुला लिया है।'' वह रुका, ''मेरे पास अधिक समय नहीं है। मुझे यह सूचना मिलनी चाहिए कि भरत को बुलाने के लिए कौन उत्तरदायी है; और भरत की योजना क्या है?''
''हमें मालूम नहीं...''
राक्षस-प्रमुख ने उसे वाक्य पूरा करने नहीं दिया, ''मैंने सुन लिया पर मुझे अपने प्रश्नों का उत्तर चाहिए।''
''हमें कुछ भी ज्ञात नहीं।'' जय ढीली आवाज में बोला।
''नहीं?''
''नहीं!''
''तुम ब्रह्मचारी?'' राक्षस-प्रमुख आनंद से संबोधित हुआ।
''मुझे भी ज्ञात नहीं'' आनन्द दीन होकर बोला, ''हम में से किसी को भी ज्ञात नहीं।''
राक्षस-प्रमुख ने अविश्वास से मुख फेर लिया, ''तुम?''
''नहीं।''
''तुम?''
''नहीं।''
''तुम?''
''नहीं।''
''इन्हें गिन-गिनकर सौ कोड़े लगाओ।'' राक्षस-प्रमुख ने कहा-कशाधारियों को आदेश दिया, ''जब तक लौह शलाकाएं भी तप जाएंगी। यदि ये लोग संतोषजनक उत्तर न दें, तो इन्हें तप्त शलाकाओं से दागो। ध्यान रहे, ये मरने न पाएं। ये धरोहर हैं। इनके शरीर को अच्छी तरह चिन्हित कर, इन्हें इनके आश्रम के निकट फेंक आओ। ये स्वयं अपने कुलपति को बताएंगे कि यदि उन्होंने बाहर से कोई सैनिक सहायता मंगवाकर हमारा विरोध करने का प्रयत्न किया, तो हमारी ओर से लड़ने के लिए लंकाधिपति रावण की सेना आएगी; और इनमें से एक-एक की यही अवस्था कर दी जाएगी।...''
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