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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

"तो मुझे पृथक् कार्य देने के स्थान पर, अपने ही साथ रखा कीजिए। मैं भी थक-हार कर संध्या समय भूखी लौटूं, तो सार्थकता का सुख पाऊं। मुझे तो हल्के और संक्षिप्त कार्य देकर बहला दिया जाता है, जैसे मैं किसी योग्य ही नहीं। कार्य केवल राम के लिए हैं, या बच जाएं तो देवर लक्ष्मण के लिए।''

राम गंभीर हो गए, ''ठीक कहती हो सीते! तुम्हें अपने योग्य कार्य अवश्य मिलना चाहिए, अन्यथा तुम्हारी समस्त ऊर्जा निष्क्रिय रहकर सड़ जाएगी। पर कठिनाई यह है इस समाज ने मान लिया है कि स्त्री घर से बाहर तभी कोई कार्य करेगी, जब पुरुष मृत, पंगु अथवा अनुपस्थित होगा। प्रयत्न में हूँ कि शीघ्रातिशीघ्र तुम्हें तुम्हारा स्थान दे सकूं-।''

सहसा राम चुप हो गए। उनकी दृष्टि सीता के चेहरे पर ठहरकर कुछ ढूंढ़ रही थी। उन्हें लग रहा था, सीता अब पहले जैसी स्वस्थ संतुलित नहीं रह गई थी। वे कुछ असहज थी।

"क्या बात है सीते?''

'समाज में मेरा जो स्थान और उपयोगिता है, वह समझाने पिछले अनेक दिनों से कुल-वृद्धाएं मेरे पास आ रही हैं।''

राम को समझने में देर नहीं लगी। ''उन बेचारियों पर दया ही करनी चाहिए सीता! उनका मानसिक क्षितिज इससे अधिक व्यापक नही है।''

''अब माता कौसल्या ने भी इंगित किया है। वे गोद में पौत्र खेलाने को उत्सुक हैं।"

राम सीता को देखते रह गए। वे सीता की पीड़ा समझ रहे थे। यह बात आज पहली बार नहीं उठी थी। चार वर्षों के दाम्पत्य जीवन में ऐसे प्रसंग अनेक बार आए थे। माता कौसल्या की पोते के प्रति उत्सुकता भी वे समझते थे। जिस समाज में मनुष्य पुत्र-पौत्र के जन्म से ही सौभाग्यशाली माना जाता है, जहां व्यक्ति अपने कर्मों से अधिक महत्त्व अपनी कुल परंपरा को आगे बढ़ाने को देता है, वहां यदि माता कौसल्या पौत्र-मुख देखने को व्याकुल हों, तो आश्चर्य की क्या बात है! आश्चर्य तो यह था कि अभी तक पिता की ओर से उन्हें ऐसा कोई संकेत नहीं मिला था और न ही उनके दूसरे विवाह की बात उठाई गई थी।

कदाचित् ये सारी कुल-वृद्धाएं, इतने अंतराल के पश्चात् भी संतान न होने का दोष सीता की अक्षमता को देती होंगी। जिनके विचार-संसार में विवाह करके एक वर्ष के भीतर संतान उत्पन्न न करना वंध्या होने का प्रमाण-पत्र हो, वे सीता को चार वर्षों के पश्चात् भी कुछ न कहेंगी-इतनी अपेक्षा उनसे नहीं की जानी चाहिए। आक्षेप तो होंगे ही : सीता पर हों, या राम पर हों। उनसे बचना संभव नहीं है-। किंतु, यदि राम आक्षेपों से बचने के लिए ही कर्म करने लगें, तो एक भी काम अपनी इच्छा से, स्वतंत्र रूप से नहीं कर पाएंगे। आक्षेपों से बचने के प्रयत्न में वे समाज की सबसे पिछड़ी हुई मानसिकता के दास हो जाएंगे।...नहीं। राम को अपने चिंतन के अनुसार, अपनी इच्छा से चलना होगा। किसी के कुछ कहने के कारण आवेश अथवा प्रतिक्रिया में राम कोई निर्णय नहीं लेंगे...।

...संतान यदि उन्हें चाहिए, तो केवल अपने वात्सल्य की तृप्ति के लिए। वे प्रतीक्षा कर सकते हैं।

किंतु सीता-सीता की इच्छा क्या है? कहीं वे अपने विचार, सीता की इच्छा के विरुद्ध तो उन पर आरोपित नहीं कर रहे...

''हाथ धो लें आर्यपुत्र।''

''प्रिये! कदाचित् तुम्हें मानसिक कलेश पहुंचे, किंतु'', राम का स्वर गंभीर था, ''समस्या का समाधान उसके साक्षात्कार में होता है।"

''आप निश्चिंत रहें। अब मैं दुर्बलता नहीं दिखाऊंगी।"

''ऐसा तो नहीं सीते! कि मेरी चिंतन पद्धति के कारण तुम्हें अपना अप्राकृतिक दमन करना पड रहा हो? कुल-वृद्धाओं को छोड़ो। किंतु, तुम्हारी इच्छा...''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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