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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

पंद्रह


संध्या का झुटपुटा गहराता जा रहा था। नवप्रांत शांत होता जा रहा था। बाहर गए हुए लोग आश्रमों में लौटते आ रहे थे। थोड़ी देर में पूर्ण अंधकार होते ही वन में पूर्ण शांति भी हो जाएगी। आश्रमों के बाड़ों के फाटक बंद हो जाएंगे, और लोग अपनी कुटियों में दीपक के निकट अथवा कुटियों के द्वार पर अग्नि के पास बैठे होंगे।

ब्रह्मचारी अश्विन तेजी से अपने आश्रम की ओर चला जा रहा था। आज वन में विलंब हो गया था। कहीं ऐसा न हो कि वह वन-प्रांतर में ही हो और पहले ही बाड़े का फाटक बंद हो जाए। एक बार फाटक बंद हो जाए, तो उसे खुलवाने में पर्याप्त कठिनाई हो जाती है। भीतर वाले लोग, जब तक ऐसा कोई प्रमाण प्राप्त नहीं कर लेते कि

आगंतुक आश्रमवासी ही है अथवा उसके बहाने कोई और भी भीतर नहीं घुस आएगा, अथवा आस-पास कोई राक्षस या हिंस्र पशु तो नहीं है-तब तक फाटक नहीं खोलते। और इस सारी प्रक्रिया में इतना विलम्ब और कोलाहल होता है कि प्रत्येक आश्रमवासी को यह मालूम हो जाता है कि अमुक व्यक्ति विलंब से आया है, तथा उसके कारण सब को असुविधा हुई है।

जल्दी-जल्दी चलने के कारण अश्विन की सांस फूल गई थी और शरीर पसीने से भीग गया था। संतोष यही था कि अधिक देर नहीं हुई, वह समय से आश्रम में पहुचा था : अभी फाटक बंद नहीं हुआ था।

आश्रम की सीमा में प्रवेश करते ही, उसकी गति धीमी पड़ गई। तब उसे अनुभव हुआ कि वह बहुत दूर से असाधारण तेजी से चलता हुआ आया है और उसने अपने शरीर को बहुत अधिक थका डाला है, आसन्न संकट के कारण उसका ध्यान अब तक इस ओर नहीं था; उसके मानसिक तनाव ने उसे शारीरिक कष्ट के प्रति सजग होने ही नहीं दिया था। किंतु, अब उसके शरीर में अधिक कार्य-क्षमता नहीं थी। न तो वह तेजी से चल सकता था, और न सिर पर रखा लकड़ियों का बोझ ही अधिक ढो सकता था। पर अब वह आश्रम में प्रवेश कर चुका था; किसी न किसी प्रकार कुटिया तक भी पहुंच ही जाएगा।

वह घिसटता हुआ अपनी कुटिया तक आया। भिड़ा हुआ द्वार खोला और सिर का बोझ धरती पर पटककर सुस्ताने बैठ गया। कुटिया के भीतर पूरी तरह अंधेरा था; किंतु थकावट के कारण दीपक जलाने का उद्यम वह कर नहीं पा रहा था। तेज-तेज सांस लेता वह चुपचाप बैठा रहा। थोड़ा सुस्ता लेगा तो फिर उठकर दीपक जलाएगा...

क्रमशः सांस स्थिर हुई; आँखें भी अंधकार में देखने की अभ्यस्त होती गईं। उसने उठकर कुटिया के कोने में रखा दीपक जलाया और घूमा...

दीपक के प्रकाश में, दूसरे कोने में खड़े एक विराट् शरीर पर उसकी आँखें जड़ होकर जम गईं। सारे शरीर का रक्त उसके मस्तिष्क की ओर दौड़ रहा था और हाथ-पांव ठंडे पड़ते जा रहे थे। उसे लगा वह चक्कर खाकर गिर पड़ेगा। दीवार का सहारा लेकर, वह भूमि पर बैठ गया।

उस विराट् आकार के राक्षस के हाथ में एक भयंकर परशु था अरि वह हँस रहा था। राक्षस धीरे-से पास चला आया, ''यदि तुमने चिल्लाने का प्रयत्न किया तो याद रखना, यह परशु बहुत धारदार है। मैंने बहुत दिनों से नर-मांस भी नहीं खाया।''

अश्विन फटी-फटी आँखों से चुपचाप उस राक्षस को देखता रहा।

''यह धनुष यहां कैसे आया?'' राक्षस ने कुटिया की छत से टंगा हुआ धनुष उतार लिया। अश्विन ने कोई उत्तर नहीं दिया।

''बोलता क्यों नहीं?'' राक्षस ने तीखी आवाज में डांटा और दायें पैर की एक भरपूर ठोकर, बैठे हुए अश्विन के बगल में मारी।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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