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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

सोलह


कालकाचार्य चिंतित मुद्रा में सिर झुकाए बैठे थे। आश्रम के सारे तपस्वी तथा आचार्य उनके सामने बैठे, उनके बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रत्येक चेहरे पर चिंता थी। केवल जय, आनन्द, त्रिलोचन, कुवलय और शशांक-शेष ब्रह्मचारियों से हटकर, कुलपति के कुछ निकट, प्रमुखता से बैठे हुए थे। उनकी भंगिमा चिंता की नहीं, यातना और अपमानित क्रोध की थी... उत्तरीयों के नीचे, उनके शरीर विभिन्न प्रकार की औषधियों और पट्टियों से लिपटे हुए थे। इस प्रकार बैठने में भी वे कम कष्ट का अनुभव नहीं कर रहे थे, गुरु का दीर्घ मौन उन्हें और भी पीड़ित कर रहा था।

अन्त में कालकाचार्य ने सिर उठाया, ''तपस्वीगण! यह न समझें कि इस दुर्घटना से मेरा मन दुःखी नहीं है। मेरे शरीर पर राक्षसों ने कशाघात नहीं किया; किंतु उस कुलपति के मन के घावों की कल्पना करें, जिसके एक नहीं, पाँच-पाँच ब्रह्मचारियों ने इतनी पीड़ा पाई हो। उनके शरीर पर पड़ा प्रत्येक कोड़ा मेरे हृदय पर पड़ा है। प्रत्येक शलाका ने मेरी आत्मा को दग्ध किया है।...किंतु आक्रोश के असंतुलित क्षणों में कोई उग्र कर्म करने के बदले, हमें थोड़ा आत्मविश्लेषण करना चाहिए...''

''आर्य कुलपति! कैसा विश्लेषण?''

जय को अपना ही स्वर काफी उच्छृंखल लगा। आज तक उसने कुलपति के सम्मुख कभी ऊंचे स्वर में भी बात नहीं की थी; और आरन वह प्रतिवाद करना चाह रहा था। उसके मन में कुलपति की सारी श्रद्धा समाप्त हो गई थी। उसे लग रहा था, यदि कुलपति इसी ढंग से सोचते और बोलते रहे, तो वह अमर्यादित हो उठेगा-उसे कुलपति का विरोध करना पड़ेगा-संभवतः उनका आश्रम छोड़ना पड़े। वह कालकाचार्य को अब अपना गुरु नहीं मान सकता...

''आत्मविश्लेषण आवश्यक है तपस्वीगण!'' कालकाचार्य ने कहा,

''वर्तमान परिस्थितियों और उसके कारणों को जानने और समझने की भी आवश्यकता है, और अन्त में उसका समाधान ढूंढ़ने की भी।''

''आपका क्या समाधान है?'' इस बार शशांक बोला। उसका भी स्वर जय के स्वर से कम उच्छृंखल नहीं था।

''ठहरो वत्स! मेरी बात सुनो।'' कालकाचार्य अपने उसी दुर्बल स्वर में बोले, ''राम के इस प्रदेश में आने से पहले भी हम यहां रहते थे; और ये राक्षस बस्तियां और शिविर भी यहीं थे। ऐसा नहीं था कि तब राक्षस हमें परेशान नहीं करते थे। किंतु, जब से राम यहां आये हैं, स्थिति काफी बदल गई है। राम और लक्ष्मण क्षत्रिय योद्धा हैं। उनके पास भयंकर अस्त्र-शस्त्र हैं। उन शस्त्रों को उन्होंने स्वयं तक ही सीमित नहीं रखा है। उनका प्रयत्न यही रहा है कि जहां तक संभव हो, लोग स्थान-स्थान पर राक्षसी अत्याचारों का विरोध करें। उस विरोध का माध्यम शस्त्र हैं। उन्होंने प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति का शस्त्रों के निर्माण और परिचालन की शिक्षा दी है। उससे अनेक स्थानों पर, राक्षसों का आधिपत्य समाप्त हो गया है। इससे राक्षस, राम से ही नहीं, समस्त आश्रमों से नाराज हो उठे हैं। राम के आश्रम का तो वे कुछ बिगाड़ नहीं सकते। अपना क्रोध शेष आश्रमों पर उतारते हैं।''

कालकाचार्य ने रुककर तपस्वियों पर दृष्टि डाली। उन्हें लगा कि जय तथा उसके घायल साथियों की आँखों में उत्सुकता का भाव नहीं था। निश्चित रूप से वे अपने कुलपति के दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे।

कुलपति ने अपनी बात आगे बढ़ाई, ''राम ने पहले दिन से हमसे संपर्क स्थापित कर रखा है। राम ने सदा चाहा कि मैं भी अपने आश्रम में शस्त्राभ्यास कराऊं। हमारा आश्रम, उनके आश्रम से निकटतम है। वे हमारी पूरी सहायता के लिए प्रस्तुत थे। किंतु, मैं पहले दिन से यह जानता था कि शस्त्र रखने का अर्थ है, राक्षसों से वैर पालना। राम हमारी सहायता तो कर सकते हैं, पर हमारी रक्षा नहीं कर सकते...''

''आपने कब चाहा कि वह आपकी रक्षा करें आर्य कुलपति।'' त्रिलोचन बीच में ही चिल्लाकर बोला।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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