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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

 

 

अवसर

एक

सम्राट् की वृद्ध आँखों में सर्प का-सा फूत्कार था, "हूँ।"

बस एक 'हूँ'। उससे अधिक दशरथ कुछ नहीं कह सके।

ऐसा क्रोध उन्हें कभी-कभी ही आता था। किंतु आज! क्रोध कोई सीमा ही नहीं मान रहा था। आँखें जल रही थी, नथुने फड़क रहे थे; और उस सन्नाटे में जैसे तेज सांसों की सांय-सांय भी सुनाई पड़ रही थी।

नायक भानुमित्र दोनों हाथ बांधे सिर झुकाए स्तब्ध खड़ा था। सम्राट् की अप्रसत्रता की आशंका उसे थी। बहुत समय तक सम्राट् के निकट रहा था। उनके स्वभाव को जानता था। उनका ऐसा प्रकोप उसने कभी नहीं देखा था। यह रूप अपूर्व था। वैसे, वह भी समझ नहीं पा रहा था कि सम्राट् की इस असाधारण स्थिति का कारण क्या था। उसे विलंब अवश्य हुआ; किंतु उससे ऐसी कोई हानि नहीं हुई थी कि सम्राट् इस प्रकार भभक उठें। वह अयोध्या के उत्तर में स्थित सम्राट् की निजी अश्वशाला में से कुछ श्वेत अश्व लेने गया था, जिनकी आवश्यकता अगले सप्ताह होने वाले पशु मेले के अवसर पर थी। अश्व प्रातः राजप्रासाद में पहुंच जाते, तो उससे कुछ विशेष नहीं हो जाता; और संध्या समय तक रुक जाने से कोई हानि नहीं हो गई किंतु सम्राट्...।

वह अपने अपराध की गंभीरता का निर्णय नहीं कर पा रहा था। सम्राट् के कुपित रूप ने उसके मस्तिष्क को जड़ कर दिया था। सम्राट् के मुख से किसी भीं क्षण, उसके लिए कोई कठोर दंड उच्चारित हो सकता था...उसका इतना साहस भी नहीं हो पा रहा था कि वह भूमि का साष्टांग लेटकर सम्राट् से क्षमा-याचना करे...सहसा, सम्राट् जैसे आपे में आए। उन्होंने स्थिर दृष्टि से उसे देखा, और बोले, "जाओ; विश्राम करो।"

भानुमित्र की जान में जान आई। उसने अधिक-से-अधिक झुककर नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और बाहर चला गया।

भानुमित्र के जाते ही दशरथ का क्रोध फिर अनियंत्रित हो उठा...मस्तिष्क तपने लगा...आभास तो उन्हें पहले भी था, किंतु इस सीमा तक...क्या अर्थ है इसका?

दशरथ ने अश्व मंगवाए थे। अश्व रात में ही अयोध्या के नगर-द्वार के बाहर, विश्रामालय में पहुंच गए थे; किंतु प्रातः उन्हें अयोध्या में घुसने नहीं दिया गया। नगर-द्वार प्रत्येक आगंतुक के लिए बन्द था-क्योंकि महारानी कैकेयी के भाई कैकय के युवराज युधाजित, अपने भानजे राजकुमार भरत और शत्रुघ्न को लेकर अयोध्या से कैकय की राजधानी राजगृह जाने वाले थे। नगर-द्वार बन्द, पथ बन्द, हाट बन्द-जब तक युधाजित नगर-द्वार पार न कर लें, तब तक किसी का कोई काम नहीं हो सकता-किसी का भी नही। दशरथ का काम भी नहीं।

तब तक, सम्राट् के आदेश से, घोड़े लेकर आने वाला नायक भी बाहर रुका रहेगा। सम्राट् का काम रुका रहेगा, क्योंकि युधाजित उस पथ से होकर, नगर-द्वार से बाहर जाने वाला था। अपनी ही राजधानी में सम्राट् की यह अवमानना!

किसने किया यह साहस? नगर-रक्षक सैनिक टुकड़ियों ने? कैसे कर सके वे साहस? इसलिए कि वे भरत के अधीनस्थ सैनिक हैं। वे सैनिक जानते हैं कि भरत, राजकुमार होते हुए भी, सम्राट् से अधिक महत्त्वपूर्ण है-क्योंकि वह कैकेयी का पुत्र है। युधाजित, सम्राट् से अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह कैकेयी का भाई है...

कैकेयी! कैसा बांधा है, कैकेयी ने दशरथ को। सम्राट् की आँखें कहीं अतीत में देख रही थीं...

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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