पौराणिक >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
आठ
तीनों रथ रुक गए। सब लोग रथों से उतर आए। राम ने क्षण-भर इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई और अपने निरीक्षण का निर्णय सुना दिया, ''हम इस इंगुदी वृक्ष के आसपास विश्राम करेंगे...। तात सुमंत, रथों और घोड़ों की व्यवस्था आप संभाल लें।''
राम ने अपना धनुष और तूणीर वृक्ष के तने से टिका दिए। वह खाली हाथ लौटकर रथों के पास आए, ''बंधुओ! हम अपना शस्त्रागार उतार लें। रथ आगे नहीं जाएंगे।''
''राजकुमार...!'' सुमंत कुछ कहने को हुए।
''आर्य!'' राम का स्वर दृढ़ था, ''इसमें विवाद, असहमति अथवा पुनर्विचार का कोई अवकाश नहीं है। यह निश्चित है कि अब न रथ आगे जाएंगे न आप, सुयज्ञ अथवा चित्ररथ में कोई आगे जाएगा। यहां से अगले पड़ाव तक सहायता का दायित्व गुह का होगा।''
सुमंत उदास हो गए। कितने हठी हैं राम। अपने कर्त्तव्य के सामने किसी की कोमल भावनाएं, उनके लिए कोई मूल्य नहीं रखतीं। और कर्त्तव्य भी कैसा? पिता ने अपने मुख से एक बार भी वनवास का आदेश नहीं दिया...किंतु, सुमंत का मन कहीं आश्वस्त भी था : राम दृढ़ निश्चयी हैं, राम आत्मविश्वासी हैं।
सुमंत घोड़ों को खोलकर, उनकी देख-भाल में लग गए। राम, सीता, लक्ष्मण, सुयज्ञ और चित्ररथ, विभिन्न धनुष, विविध प्रकार के बाणों से भरे तूणीर, खड्ग तथा अनेक दिव्यास्त्र, रथों से उठा-उठाकर इंगुदी वृक्ष के तने के साथ टिकाने लगे हैं, सीता को कार्य करते देख, एक-आध बार, सुयज्ञ तथा चित्ररथ ने कहा भी ''आप ऐसा कठिन कार्य न करें आर्या हम लोग अभी किए देते हैं।''
किंतु राम ने उन्हें तत्काल टोक दिया, ''सीता को भी अपने ही समान स्वतंत्र तथा समर्थ व्यक्ति समझकर कार्य करने दो; और वैसे भी वनवास की अवधि में सहायता करने के लिए तुम लोग साथ नहीं रहोगे।''
इधर रथों से शस्त्रागार उतारा गया और उधर अपने कुछ सैनिकों के साथ आते हुए गुह दिखाई दिए।
राम अपना सहज गांभीर्य त्याग, चंचलतापूर्वक भागे। दौड़कर उन्होंने गुह को गले से लगा लिया, ''कितने दिनों के पश्चात् मिले हो मित्र!'' गुह की आँखों में आँसू आ गए, ''यही तो मैं भी कहता हूँ राम, इतने दिनों के पश्चात् मिले हो, और वह भी इस प्रकार। महल में न आकर, इंगुदी वृक्ष के नीचे टिक गए।''
उन्होंने बड़ी करुण दृष्टि से राम, सीता और लक्ष्मण को देखा।
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