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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

उनके आँसू और करुणा अधिक देर नहीं टिकी। अगले ही क्षण आँसू सूख गए। चेहरा तमतमा उठा। वाणी में ओज भर आया, ''राम! मेरे गुप्तचरों ने तुम लोगों के यहां पहुंचने और तुम्हारे वनवास की सूचनाएं साथ ही दी हैं। यह उनकी शिथिलता का प्रमाण अवश्य है, पर उससे क्या? मैं अपनी सेना को, युद्ध के लिए प्रस्तुत होने का आदेश देकर आया हूँ। मेरी सेना, अयोध्या की सेना के बराबर नहीं है। न संख्या में, न युद्ध कौशल में, न शस्त्रास्त्रों में पर, उससे क्या? मेरे वीर, साम्राज्य की उस वेतन-भोगी सेना को पल भर में नष्ट कर देने का हौंसला रखते हैं। तुम हमारे साथ हो राम! तो हम किसी से भी टकरा जाएंगे। आज रात विश्राम करो। प्रातः ही अभियान होगा।''

''गुह भैया!'' लक्ष्मण हंसे, ''पहले मुझसे गले मिलोगे; या पहले अयोध्या पर सैनिक अभियान करोगे?''

गुह संकुचित हुए, ''सौमित्र! तुम्हें फिर कटाक्ष का अवसर मिल गया। आवेश में मैं कभी-कभी अपना संतुलन खो बैठता हूँ।''

गुह और लक्ष्मण गले मिले। राम शांत भाव से उन्हें देखते रहे। उनके अलग होते ही बोले, ''पहले मेरे साथ एक ही लक्ष्मण थे, अब तो तुम दोनों हो। तनिक सीता का प्रणाम भी स्वीकार कर लो तो सैनिक अभियान की योजना बनाते हैं।''

सीता ने हाथ जोड़ दिए, ''ज़ेठ के सम्मुख अनुज वधू वैसे ही संकुचित हो जाती है, फिर जब जेठ सैनिक अभियान करते आएं तो प्रणाम करने में विलंब हो जाना स्वाभाविक है। आशा है जेठजी क्षमा करेंगे।''

आशीर्वचन की मुद्रा में हाथ उठा, गुह क्षण भर भौंचक्के से खड़े रह गए; और फिर जोर से खिलखिलाकर हँस पड़े, ''अच्छा तमाशा बनाया, तुम लोगों ने मेरे आवेश का। इतने शांत जनों के बीच तो एक आविष्ट व्यक्ति, मूर्खता से आविष्ट लगने लगता है।''

गुह देर तक हँसते रहे। फिर सहज होकर अपने सैनिकों की ओर मुड़े, ''शस्त्र शिथिल कर, शांत होकर बैठ जाओ वीरो। ये लोग युद्ध की मुद्रा में नहीं हैं...।'' वे घूमे, ''पर राम! निर्वासन से तुम लोग रुष्ट नहीं हो क्या? अयोध्या के राज्य पर तुम्हारा पूर्ण अधिकार है, वरन् पिछले कई वर्षों से अयोध्या का शासन तुम्हीं चला रहे हो...।''

''आओ पहले इन लोगों से तुम्हारी पहचान कराऊं।'' राम बोले, ''ये सुयज्ञ हैं; गुरु वसिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र और मेरे मित्र। ये हैं सम्राट् के मंत्री चित्ररथ, मेरे सुहृद। ये लोग हमें पहुंचाने आए हैं। मेरी अनुपस्थिति में, तुम्हें अयोध्या में इन्हीं से संपर्क बनाए रखना है।''

परस्पर अभिवादन के पश्चात, गुह फिर पहले विषय पर लौट आए, ''तुम रुष्ट क्यों नहीं हो राम? देख रहा हूँ, ऐसी भयंकर घटना के पश्चात भी, लक्ष्मण तक शांत हैं।''

राम का तेज, उल्का के समान प्रकट हुआ, ''यह न समझो गुह! कि मैं इतना असमर्थ हूँ, या अयोध्या में मुझे इतना भी जन-समर्थन प्राप्त नहीं है कि कोई मुझसे मेरा अधिकार छीनकर, मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे निर्वासित कर देता। मैं अपनी इच्छा से न चला आया होता, तो कोई इसे संभव नहीं कर पाता...। और अपनी इच्छा से अधिकार त्यागने में आक्रोश कैसा? आरंभ में लक्ष्मण भी तुम्हारे ही समान क्रुद्ध हुए थे, किन्तु बात समझकर शांत हो गए और साथ चले आए।'' राम हँस पड़े, ''इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम भी बात समझ कर मेरे साथ चल पड़ो।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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