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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

गुह हत्प्रभ रह गए; राम का वह तेज और यह हंसी। कितने आश्वस्त हैं राम!...चिंतन की मुद्रा में गुह बोले, ''मैं तुम्हारे साथ चलने की बात नहीं सोच रहा। मैं तुम्हारा राजतिलक श्रृंगवेरपुर में करूंगा। तुम चौदह वर्षों तक यहीं राज्य करो राम!''

''राज्य करना होता तो अयोध्या क्या बुरी थी।'' राम मुस्कराए, ''श्रृंगवेरपुर में तुम्हीं राज्य करोगे, एक काम मेरा भी करना होगा।''

''क्या?'' गुह तन्मय हो गए।

''संभावना बहुत कम है।'' राम मुस्कराए, ''दुहरा रहा हूँ, संभावना बहुत कम है; किंतु यदि हमारा अनिष्ट करने के लिए भरत ने इस ओर सैनिक अभियान किया, तो तुम बाधा दोगे; और चित्रकूट में हमें इसकी सूचना भिजवाओगे।''

''अवश्य।'' राम का विश्वास और उनकी ओर से सौंपा गया उत्तरदायित्व पाकर, गुह महत्त्वपूर्ण हो उठे।

वार्तालाप से तनिक शिथिलता पाते ही सीता बोलीं, ''यदि अनुचित न हो, तो पूछूं, जेठानी के दर्शन नहीं होंगे क्या?''

गुह फिर से संकुचित हो उठे, ''क्षमा करना वैदेही! मैं सैनिकों को साथ लेकर चला आया, पत्नी को भूल ही गया। अब सब लोग मेरे साथ चलो। मेरे महल पर पधारो...'' राम को मुसकराते देख, कुछ भांपते हुए बोले, ''कदाचित् वनवास में राम किसी भी नगर में नहीं जाएंगे, चाहे वह श्रृंगवेर ही क्यों न हो; किंतु तुम और लक्ष्मण...''

''नहीं जेठजी।'' सीता मुसकराईं, ''पति को वन छोड़ पत्नी का राजमहल में जाना उचित नहीं होगा। जेठानी जी आशीर्वाद देने यहां तक आ सकतीं, तो हमारा सौभाग्य होता।''

राम बोले, ''गुह! औपचारिकता छोड़ो...हम तुम्हारे महल में नहीं जा सकते। हमें स्वादिष्ट भोजन भी नहीं चाहिए। वैसे तुम्हारे राज्य में आए हैं, वन्य भोजन में जैसा सत्कार कर सकते हो, यहीं कर दो। और यदि प्रातः विदा के समय भाभी के दर्शन हो सकें, तो यथेष्ट होगा।''

''जैसी तुम्हारी इच्छा।'' गुह उठ गए। अपने सैनिकों के साथ वह प्रबंध के लिए चले गए। शेष लोग राम के निकट आ बैठे। अचानक सुमंत भी, घोड़ों की व्यवस्था से मुक्त हो चुके थे।

रात के अन्तिम प्रहर में जाकर निषादराज गुह प्रातः अपनी रानी के साथ लौटे। रानी ने राम और लक्ष्मण के अभिवादन का उत्तर देकर, सीता को आलिंगन में कस लिया।

सीता की निषाद रानी से यह पहली ही भेंट थी : किंतु स्नेह का आधार पहले से ही स्थापित हो चुका था। निषाद रानी ऊंचे कद तथा इकहरे बदन की, ऊर्जा से भरी हुई सुन्दर युवती थी। सांवला रंग था, गौर वर्णीय आर्य कन्याओं के सौंदर्य की अभ्यस्त आँखों को वह रंग क्षण भर के लिए खटकता था; किंतु वर्ण के पूर्वाग्रह को भेदने और नष्ट करने में उसका सौंदर्य अधिक समय नहीं लेता था। आर्य सौंदर्य संस्कारों में पला सीता का मन दो क्षणों में ही निषाद रानी के आकर्षक सौंदर्य की प्रतिष्ठा को मान गया और फिर, उस मुख मंडल पर झलकता हुआ स्नेह, उसे ममतापूर्ण बना रहा था। यौवन तथा वात्सल्य के अद्भुत आकर्षण

ने उसके रूप को अलौकिक आयाम दिया था।

''तुमने विकट जोखिम का काम किया है, सीते!'' निषाद रानी ने अपना बाहुपाश ढीला कर, बांहों की दूरी पर रख, सीता को प्रेम से निहारते हुए कहा।

सीता मुस्कराईं, ''राम जैसे वीर पति की पत्नी ही यदि ऐसा जोखिम न उठाएगी, तो दूसरा कौन उठाएगा?''

''ठीक कहती हो सखी!'' निषाद रानी बोली, ''युवराज के असाधारण शौर्य में किसी को भी संदेह नहीं। पर...'' वह तनिक संभ्रम से बोली, ''यह मत समझना सीते! कि मैं अपना ज्ञान बघार रही हूँ। बात केवल इतनी-सी है, कि हम इस प्रदेश में रहते हैं; और हमारी नौकाएं और जलपोत दूर-दूर तक यात्राएं करते हैं, इसलिए इधर के वनों की जानकारी हमें है। ये वन ऐसे नहीं हैं बहन! जहां कोई पुरुष भी सुरक्षित हो, फिर नारी की तो बात ही क्या?''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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