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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

पाँच

कौसल्या के महल के सम्मुख राम ने सुमंत को रोक दिया। रथ से उतरकर बोले, ''आप लौट जाएं, आगे मैं स्वयं चला जाऊंगा।''

''मैं प्रतीक्षा करूंगा राम!''

''नहीं काका।'' राम मुस्कराए, ''मेरी चिंता न करें। सम्राट् को आपकी आवश्यकता मुझसे कहीं अधिक होगी।''

राम ने कक्ष में प्रवेश किया।

माता कौसल्या के सम्मुख वेदी में अग्नि प्रज्वलित थी। उनके आस-पास अनेक आवश्यक वस्तुएं बिखरी पड़ी थीं : दही, अक्षत, घी, मोदक, हविश्य, धान का लावा, सफेद पुष्पों की माला, खीर, खिचड़ी, समिधा तथा जल से भरे हुए कलश। उन्होंने श्वेत रेशमी साड़ी पहनी हुई थी। वे व्रत के अनुष्ठान में दत्तचित्त इष्टदेव का तर्पण कर रही थीं।

राम के मन में कसम उठी : कितने उत्साह से मां उनके अभिषेक की तैयारियां कर रही थीं। राम उन्हें कैसे सूचना देंगे? कह दें माता तुम्हारा यह उल्लास अयथार्थ है। तुम्हारे पुत्र का न केवल अभिषेक नहीं होगा, अब वह चौदह वर्षों तक तुम्हारे निकट भी नहीं रह पाएगा...क्या अवस्था होगी मां के मन की? वे यह धक्का झेल पाएंगी...? राम का मन उदास हो गया।

तत्काल उन्होंने स्वयं को संभाला। यदि इतनी-सी बात से विचलित हो गए तो वह कभी भी अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं कर पाएंगे। कोमल मन अथवा कोमल हाथ कर्त्तव्य-पूर्ति में कभी सहायक नहीं होते। उन्हें दृढ़ रहना होगा। तनिक-सी दुर्बलता से अवसर हाथ से निकल जाएगा। अभी तो सीता को भी सूचना देनी है। लक्ष्मण भी जानेंगे। सारे बन्धु-बान्धव, मित्रगण, नगर निवासी सुनेंगे...राम को समझाएंगे, रोकेंगे, बाधा देंगे, साथ जाने का हठ करेंगे; पर राम को उन सबके निषेधों, उदास चेहरों तथा अश्रुओं के सागर में से तैरकर पार जाना होगा। मोह और कर्त्तव्य का निर्वाह साथ-साथ नहीं हो सकता। मोह को तोड़ना होगा-कठोर हुए बिना, कभी कोई कर्त्तव्य पूरा नहीं उतरा...कौसल्या अपने इष्ट देव से संबोधित थीं। उन्होंने राम का आना लक्ष्य नहीं किया। सहायता के लिए पास बैठी सुमित्रा ने चेताया ''बहन! राम आए हैं।''

प्रकट ललक के साथ कौसल्या राम की ओर उन्मुख हुईं। उनकी आकृति पर उल्लास की असाधारण दीप्ति थी; आँखों में कामनापूर्ति की तृप्ति थी। किंतु राम के मुख पर उल्लास का कोई चिन्ह नहीं था। वे अत्यन्त गंभीर, स्थिर तथा आत्मनियंत्रित लग रहे थे।

''क्या बात है राम?''

राम स्थिर दृष्टि से शून्य में देखते रहे, ''मां! पिता प्रदत्त दो पूर्वतन वरदानों के आधार पर माता कैकेयी ने भरत को अयोध्या का राज्य और मुझे चौदह वर्षों के लिए दंडकारण्य का वास दिया है।''

कौसल्या ने अचकचा, पलकें झपक-झपककर, राम को देखा...नहीं। यह परिहास नहीं हो सकता। राम ऐसा परिहास नहीं कर सकता। वह सत्य कह रहा है...कौसल्या स्तंभित रह गई। उनकी सांस जहां की तहां रह गई। प्राण-शक्ति जैसे किसी ने खींच ली। वर्ण सफेद हो गया, और माथे पर स्वेद-कण उभर आए। अपनी जीभ से होंठों को गीला करने में भी उनको एक युग लग गया।

''राम!''

''मैं जा रहा हूँ मां! विदा दो।''

राम ने झुककर कौसल्या के चरण छुए।

''तुम वन जाने का निश्चय त्याग नहीं सकते पुत्र?''

''असंभव!'' राम का स्वर दृढ़ था।

कौसल्या ने भौंचक दृष्टि से राम को देखा। उनके चेहरे की दृढ़ता से, कौसल्या के मन की आशा का आधार जैसे अर्राकर गिर पड़ा; साथ ही उनका शरीर भी झटके से भूमि पर चला आया। सुमित्रा और राम ने कौसल्या को संभाला और पलंग पर लिटा दिया।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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