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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

''क्या हुआ राम?''

''कुछ विशेष तो नहीं।''

''आप प्रसन्न नहीं हैं?''

''प्रसन्नता स्पष्टता से आती है। मैं अपने मन में स्पष्ट नहीं हूँ।''

''क्यों?''

''एक ओर विपरीत कर्त्तव्यों ने द्वन्द्वों के ज्वार उठा दिए हैं। और दूसरी ओर; मुझे यह युवराज्याभिषेक असहज लग रहा है।''

''रघुकुल में जयेष्ठ पुत्र का युवराज्याभिषेक असहज होता है क्या?''

''नहीं।'' राम का स्वर मन की गुत्थियों से भारी था, ''किंतु गुरु का अकस्मात ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय गोपनीयता से सुनाना और तुरंत चले जाना। इतना ही नहीं, आज राज-परिषद् का निर्णय करना, और कल प्रातः अभिषेक हो जाना। इस भगदड़ का कारण? ऐसे समारोह, महीनों तैयारी के पश्चात् होते हैं। सारे राज्य में घोषणाएं होती हैं। मित्र राजाओं, संबंधियों, ऋषियों, आचार्यों, सामंतों, श्रेष्ठियों आदि को निमंत्रित किया जाता है, पर कोसल के युवराज का अभिषेक गुप्त रीति से होगा, सबकी दृष्टि से बचाकर? रात-रात में, कल प्रातः तक कितने लोगो को निमंत्रण जा सकेगा? कितने लोग अयोध्या पहुंच सकेंगे? सोचो तो, अन्य संबंधी तो दूर, सम्राट् सीरध्वज तक को निमंत्रण नहीं भेजा गया। स्वयं भरत तथा शत्रुघ्न भी अयोध्या में नहीं हैं।''

''आप ठीक कह रहे हैं।'' सीता भी गंभीर हो उठीं, ''आप सम्राट् से मिल लें। संभव है वह कोई उपयुक्त उत्तर दे पाएं।''

''मां को सूचना दे दो। मैं पिताजी से मिलकर आता हूँ।''

राम ने राजसभा में; सम्राट् के निजी कक्ष में जाकर पिता के चरणों में प्रणाम किया। सम्राट् ने गदगद स्वर में आशीर्वाद दिया, ''शत्रुओं पर विजय पाओ पुत्र!''

सम्राट् अत्यन्त चिंतित दीख पड़ते थे-अस्त-व्यस्त और परेशान, कदाचित थोड़े से भयभीत भी। सम्राट् के निजी सेवकों को छोड़, अन्य

कोई भी व्यक्ति वहां उपस्थित नहीं था। सभा विसर्जित हो चुकी थी। सारे मंत्री और सामंत भी जा चुके थे। अकेले सम्राट् किसी चिंता, में डूबे खोए-खोए से बैठे थे। राम को सम्राट् की आकृति पर उस चिंतित प्रहरी के से भाव दिखे जो अपने संरक्षण में रखी गई किसी वस्तु की सुरक्षा के लिए बहुत चिंतित हो, और चाहता हो कि कुछ अन्यथा हो जाने से पहले किसी प्रकार वह उस वस्तु की उचित व्यवस्था कर दे...।

''सम्राट् चिंतित हैं।'' राम ने बहुत कोमल स्वर में बात आरंभ की।

''सम्राट् नहीं, एक पिता चिंतित है पुत्र!'' दशरथ बोले, ''आज मैंने राज-परिषद् में तुम्हारे युवराज्याभिषेक का प्रस्ताव रखा था। सभा ने एकमत से उसका समर्थन किया है। मैं चाहता हूँ कि यह अभिषेक कल प्रातः ही हो जाए। कार्य जितनी शीघ्र हो जाए, उतना ही अच्छा।''

राम ने अपनी दृष्टि पिता की आँखों पर टांग दी, ''पिताजी! इस अपूर्व शीघ्रता का कारण? जिस ढंग से मेरा अभिषेक हो रहा है उसमें कुछ अनुचित होने की गंध है।''

''मैं जानता था। इसलिए तुम्हें बुलवाया था।'' दशरथ का स्वर कातर था। ''प्रश्न मत करो राम। इस समय कुछ मत सोचो, कुछ मत पूछो। जो कह रहा हूँ, करो। पुत्र, मनुष्य की बुद्धि बहुत चंचल होती है. और परिस्थितियां बलवान। इससे पहले कि मेरी चित्तवृत्ति बदल जाए, अथवा मैं परिस्थितियों के सम्मुख अवश हो जाऊं; और यह अवसर हाथ से निकल जाए, तुम अपना युवराज्याभिषेक करवा लो...।''

''पिताजी!''

''शंका मत करो राम। मैं इस समय उत्तेजना और चिंता से विक्षिप्त हो रहा हूँ। दिन-रात दुःस्वप्नों से घिरा हुआ हूँ। अवकाश नहीं है। गुरु जैसा कहें, सीता-सहित, वैसा ही व्रत पालन करो। जाओ।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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