पौराणिक >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
राम ने विस्मय से पिता को देखा।
''आप इतने कातर क्यों हैं पिताजी!'' वे स्थिर वाणी में बोले, ''यदि किसी निश्चित जोखिम के विषय मे जानते हैं तो स्पष्ट बताएं। काल्पनिक आशंकाओं से पीड़ित न हों। इसे आत्मश्लाघा न मानें। आपका राम किसी भयंकर से भयंकर शत्रु के विरुद्ध अपनी रक्षा करने में समर्थ है।''
''तुम्हारी क्षमता में मुझे तनिक भी संदेह नहीं। किंतु, पिता का मन असावधान नहीं रहना चाहता राम! तुम्हारी रक्षा का पूर्ण प्रबन्ध होना चाहिए। यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं अपने अंग-रक्षकों की एक टुकड़ी भेज दूं। मेरी अपनी सुरक्षा के लिए तुम्हारा सुरक्षित रहना बहुत आवश्यक है। सारी अयोध्या में, सिवाय तुम्हारे, मुझे कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ता, जो मेरी कुशलता चाहता हो।...''
''पिताजी मुझे क्षमा करें।'' राम रुक नहीं सके, ''आपकी ये आशंकाएं मेरी समझ में नहीं आ रहीं; और यह त्वरा भी मेरे लिए कौतुक की वस्तु है। आपका ध्यान कदाचित् इस ओर नहीं गया कि भरत और शत्रुघ्न भी नगर में नहीं हैं। क्या इस अवसर पर उनका अयोध्या में होना आवश्यक नहीं है?''
''नहीं।'' दशरथ खीझकर बोले, ''भरत के अयोध्या में आने से पूर्व ही तुम्हारा युवराज्याभिषेक हो जाना चाहिए।''
''किंतु क्यों पिताजी?''
''शुभ कामों में अनेक विघ्न उपस्थित हो जाया करते हैं पुत्र! उनका शीघ्र हो जाना अच्छा है। विलंब उनके लिए घातक होता है।''
राम का संदेह बलवान हो उठा, निश्चय ही सम्राट् को भरत अथवा कैकेयी की ओर से ही आशंका है; किंतु खुलकर कुछ कहना नहीं चाहते। संभव है पिता की आशंकाओं का ठोस आधार हो, अथवा ये वृद्ध पिता के भीतरी मन की दुष्कल्पनाएं मात्र हों।
पिता किस आवेग से यह बात कह रहे हैं : निश्चय ही उन्होंने कैकेयी से, इस विषय में विचार-विमर्श नहीं किया होगा। संभव है कि चर्चा तक न की हो, और उन्हें पूर्ण अन्धकार में ही रखा हो। रनिवास में किसी को भी यह समाचार ज्ञात नहीं था। स्वयं माता कौसल्या को, सीता ने जाकर बताया था; और उन्होंने आगे माता सुमित्रा और लक्ष्मण को सूचना भिजवाई थी। जब यह समाचार उन लोगों तक से गुप्त रखा गया...।
कैकेयी को अवश्य ही इस संबंध में कोई खबर न होगी। दशरथ की उत्कट इच्छा को राम अपने अनुमान से समझने का प्रयत्न कर रहे थे। आरंभिक जीवन में माता कौसल्या तथा स्वयं राम के प्रति की गई उपेक्षा तथा अनादर की शायद प्रतिक्रिया जागी थी सम्राट् में। पहले जिस विकटता से वह उनके विरुद्ध रहे थे, अब उसी विकटता से उनके अनुकूल हो रहे थे।-ऐसी मनःस्थिति में पिती से राम कुछ कह नहीं सकते थे।
क्या बात इतनी ही थी? क्या पिता स्वयं अपने प्राणों के लिए भयभीत नहीं हैं? क्या उन्होंने यह नहीं कहा सिवाय राम के, अयोध्या में कोई उनकी कुशल नहीं चाहता? वे राम को सत्ता सौंपना चाहते हैं, राम की सुरक्षा चाहते हैं, इसलिए कि राम उनकी रक्षा कर सकें। क्या पिता इस सीमा तक डरे हुए हैं कि भरत तथा कैकेयी की ओर से अपने प्राणों के लिए भी आशंकित हैं। क्या है यह? सम्राट् की दुश्चिंताएं? स्वार्थ? न्याय की भावना? अथवा राम के प्रति स्नेह? और भरत के नाना को दिया गया सम्राट् का वचन? क्या पिता उस वचन को भी भूल गए हैं या वे सायास उसकी उपेक्षा कर रहे हैं?
रघुकुल में जन्म लेकर, दशरथ अपना वचन तोड़ना चाहते हैं?
क्यों? राम को राज्य का अधिकर देने के लिए?
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