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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

''तो ऐसा ही हो प्रिये! कल से तुम्हारा नया जीवन आरंभ हो। कल प्रातः से तुम वनवासिनी वैदेही बन जाओ; एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर

व्यक्ति की संगिनी और सहगामिनी...'' सीता ने मस्तक उठाकर, दुलार से राम की आँखों में देखा। राम मुग्ध हो उठे।

सुबह राम और सीता मंदाकिनी में स्नान कर रहे थे। किनारे पर आ उन्होंने सूखे वस्त्र पहने। अपने आश्रम की दिशा के कगार की ओर मुड़ने से पहले सीता ने एक दृष्टि मंदाकिनी के जल पर डाली। दूसरे तट पर, पानी से लगकर खड़ा वह कुबड़ा अर्जुन वृक्ष कितना अच्छा लग रहा था। उसकी डालें प्रवाह के ऊपर तक झुक आई थीं, और पत्ते पानी को छू रहे थे। तैरते हुए सीता उसके पास से निकली थीं, तभी उन्हें इस वृक्ष ने आकर्षित किया...। और उनकी अपनी ओर के तट पर टिटहरियों का वह जोड़ा...किंतु कुछ दूर पर यह क्या था? कोई मानव आकृति थी। हां स्पष्ट हो गया। घड़ा भरती हुई, कोई भील-कन्या थी...

''आप चलें। मैं अभी आती हूँ।''

राम अकेले अपने आश्रम की ओर बढ़े। सीता कदाचित् उस भील किशोरी से परिचय करना चाहती थीं...। वे लोग आश्रम के इतने निकट थे कि सीता को अकेली छोड़ने में संकट की संभावना नहीं थी...

सीता को अपनी ओर आते देख भील किशोरी रुक गई। उसके निकट जाने पर, कुछ ठिठकी; फिर जैसे साहस कर हल्के से बोली, ''देवि? आपको पहले तो कभी नहीं देखा।''

सीता मुस्कराईं, ''मैं देवी नहीं दीदी हूँ। तुम्हारा क्या नाम है?''

''मैं सुमेधा हूँ।'' किशोरी की प्रगल्भता कुछ सकुचा गई।

''सुंदर नाम है। किसने रखा है; तुम्हारा नाम?''

''ऋषि वाल्मीकि ने।'' सुमेधा बोली, ''बाबा कहते हैं, कि पहले ऋषि का आश्रम हमारे गांव से बहुत निकट था, तब हम उनके आश्रम में बहुत आया-जाया करते थे। ये मुझसे बहुत स्नेह करते थे।''

''ऋषि ने अपना आश्रम क्यों हटा लिया?'' सीता ने पूछा।

''राक्षस लोग रोज झगड़ा करते थे। ऋषि की साधना में विघ्न पड़ता था। ऋषि उत्तर की ओर हट गए।''

सीता के लिए यह नई सूचना थी। चकित होकर बोलीं, ''और तुम्हारा गांव?''

''गांव में गड़बड़ होती रहती है।'' सहसा सुमेधा कुछ भयभीत और व्याकुल हो उठी, ''दीदी! मुझे पानी ले जाना है। फिर बताऊंगी।''

वह चल पड़ी। कुछ क्षणों के बाद लौटी, ''आप कहां रहती हैं?''

''वह ऊपर टीले वाला आश्रम हमारा है।'' सीता ने इंगित किया, ''कब आओगी?''

''दोपहर को।'' सुमेधा घड़ा उठाए, भागती चली गई।

सीता, उसके आकस्मिक भय और व्याकुलता को समझने का प्रयत्न करती हुई लौट आईं।

प्रातः कालीन कार्यों से निवृत्त होकर लक्ष्मण ने कुल्हाड़ी संभाली और पिछले दिन लाई गई लकड़ियों में व्यस्त हो गए।

''नायक! मेरा कर्त्तव्य भी बता दें।'' सीता, बोलीं।

''नहीं भाभी! आज आपका और भैया का इस निर्माण में कोई काम नहीं है। मेरी ओर से आप मुक्त हैं।''

''तो मैं क्या करूं?'' सीता ने जैसे अपने-आपसे प्रश्न किया।

''तुम्हारी शस्त्र-शिक्षा आरंभ होगी।'' राम बोले, ''जाओ, शस्त्रागार में से एक हल्का धनुष, एक तूणीर और दो खड्ग ले आओ।''

राम ने धनुष तथा खड्ग का चुनाव, सीता पर छोड़ दिया था। सीता शस्त्रागार के भीतर गईं तो उनके मन में अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए-क्या राम यह मानकर चले हैं कि सीता को शस्त्रास्त्रों के प्रकारों तथा वर्गों का आरंभिक ज्ञान है? अथवा वे ऐसे आरंभिक ज्ञान को इस प्रशिक्षण के लिए आवश्यक नहीं समझते?

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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