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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

राम ने अपने वस्त्र कसे; धनुष तथा तूणीर को अच्छी प्रकार पीठ पर बांधा, और जल में उतर गए। पानी गहरा नहीं था, और प्रवाह भी तेज नहीं था-यह उन्होंने प्रातः नहाते हुए देख लिया था। जिस स्थान से वे नदी पार कर रहे थे, वहां जल और भी उथला था। बहुत थोड़ा सा तैरकर, और अधिकांश पैदल चलकर, उन्होंने नदी पार की। किंतु दूसरे तट पर पहुंचकर वह कुछ ठगे से खड़े रह गए। वहां मनुष्य के आवास का कोई चिन्ह नही था। नदी के तट पर न कोई नाव थी, न घाट जैसा कोई आभास। तट से कुछ हटकर बहुत ऊंचा कगार था, जिस पर घने वृक्ष थे। ऊपर तक जाने के लिए कोई पगडंडी भी नही थी, जिससे कोई संकेत मिलता। किंतु धोखा नहीं हो सकता-राम ने सोचा, उन्होंने अपने तट से, इस स्थान पर तपस्वियों जैसी कुछ आकृतियां हिलती-डुलती देखी थीं।, वह कुछ देर तक खड़े सोचते रहे। और तब उन्होंने ऊपर कगार तक जाने का निश्चय किया।

पगडंडी के अभाव में कगार पर चढ़ना सरल नही था; किंतु पानी के द्वारा बनाए गए कटानों की सहायता से वह ऊपर चढ़ते गए। कगार पर पहुंचकर, उन्होंने स्वयं को घने वन के सम्मुख पाया।

आश्रम के समीप के वृक्ष कुछ कटे-छंटे होते हैं, किंतु यहां लगता था, कभी किसी ने कोई टहनी भी नहीं छुई।...पर राम की दृष्टि को धोखा नही हुआ था; उर्न्होने निश्चित रूप से इस ओर मानव-आकृतियां देखी थीं। तो क्या वे लोग इतनी सावधानी से रहते हैं कि किसी बाहरी व्यक्ति को उनके यहां रहने का आभास भी न मिले? वन के प्राकृतिक स्वरूप की सायास रक्षा की जा रही थी?...

राम ने वृक्षों के बीच से होकर वन में प्रवेश किया।

घने वृक्षों की पंक्तियों के पीछे भूमि ढालू हो गई थी, और आश्रम

के चिन्ह प्रकट हो गए थे। निश्चित रूप से आश्रम के कुलपति, अत्यन्त सावधान व्यक्ति थे। उन्होंने अपने आश्रम के लिए वन में वह स्थान ढूंढा था, जहां प्रकृति छिपने में उनकी सहायता कर रही थी।

आश्रम में प्रवेश करने से पूर्व, राम के सम्मुख, फिर उनके शस्त्रों की समस्या आ खडी हुई। उन्हें बाहर ही खड़े रहकर प्रतीक्षा करनी होगी।...किंतु उन्हें प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। कदाचित् उन्हें आश्रम की ओर आते हुए देख लिया गया था। निश्चित रूप से आश्रमवासी अपनी सुरक्षा के विषय में काफी सावधान थे।...

एक ब्रह्मचारी ने आशंकित मुख-मुद्रा से उनका स्वागत किया, ''पधारें आर्य! आप इस प्रदेश में नये लगते हैं। आपको यहां पहले कभी नहीं देखा गया।''

राम ने आशंकित स्वागती को तनिक विस्मय से देखा और अपनी कठिनाई उसके सामने रखी, ''भद्र! मैं राम, शस्त्रधारी क्षत्रिय हूँ। अपरिचित प्रदेश के कारण अपने शस्त्र त्याग नहीं सकता। फिर भी कुलपति के दर्शन करना चाहता हूँ।''

''आपका स्वागत है आर्य।'' ब्रह्मचारी ने मार्ग दिखाया, ''कुलपति आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।''

राम को एक वृद्ध तपस्वी के सम्मुख प्रस्तुत किया गया।

''भद्र राम! कालकाचार्य के आश्रम में तुम्हारा स्वागत है।'' तपस्वी ने राम के अभिवादन का उत्तर देकर कहा, ''मेरी सूचनाओं के अनुसार तुम अयोध्या के निर्वासित राजकुमार हो। और अपने वनवास का समय व्यतीत करने यहां आए हो। ये सूचनाएं मुझे कल मिली थी, जब तुम अपने आश्रम के लिए स्थान का चुनाव कर रहे थे। किंतु वत्स! यह स्थान तुम्हारे लिए निरापद नहीं है।''

क्रुलपति की सावधानी और सचेतता से राम प्रभावित हुए। बोले-''आर्य कुलपति! निरापद नहीं है, इसलिए शस्त्र साथ लेकर चलता हूँ, और शस्त्रधारी क्षत्रिय किसी भी स्थान को अपने लिए निरापद नहीं मानता। वैसे आपकी इस धारणा का कारण जान सकता हूँ?''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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