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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

राम मुस्कराए, ''केवल शस्त्र होने से कुछ नहीं होता, मेरे नवयुवक मित्र! उसके परिचालन के कौशल पर बहुत कुछ निर्भर करता है। युद्ध में अकेले सौमित्र, सैकड़ों तुंभरणों पर भारी पड़ेंगे! पर, तुम्हें यदि शस्त्रों की संख्या से ही आश्वासन मिलता हो तो...सौमित्र! इसे अपना शस्त्रागार दिखा दो।''

कुंभकार शस्त्रागार देखकर लौटा तो एकदम अभिभूत लग रहा था। चपलता विलीन हो चुकी थी। गंभीर दृष्टि से राम को देखा।

''आर्य? आपने इतने शस्त्र क्यों जमा कर रखे हैं?''

''आत्म-रक्षा और न्याय-रक्षा के लिए।'' राम बोले, ''प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-रक्षा का अधिकार है, और न्याय की रक्षा उसका धर्म है।''

''मेरा भी?'' कुंभकार ने अविश्वासपूर्ण स्वर में पूछा।

''हां, तुम्हारा भी।''

''तो बर्तन बनाना मेरा धर्म नहीं है।''

''तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध नहीं है।''

''मैं वह कार्य छोड़ दूं?''

''छोड़ दो।''

''तुंभरण के बर्तन कौन बनाएगा?''

''जिसकी इच्छा होगी, वह बनाएगा। इसकी चिंता तुम्हारा काम नहीं है।''

''और यदि तुंभरण ने मेरी हत्या का प्रयत्न किया, तो मेरी रक्षा कौन करेगा?'' कुंभकार बोला।

''तुम स्वयं करोगे।'' राम मुस्कराए।

''मुझे शस्त्र कौन देगा?''

''अपने लिए तुम स्वयं शस्त्र बनाओगे?''

''शस्त्र-परिचालन की शिक्षा कौन देगा?''

''मैं दूंगा।'' राम के स्वर में दृढ़ संकल्प था।

''मुझे भी, मेरे साथियों को भी?''

''सबको।''

''सुमेधा के पिता झिंगुर को भी?''

''हां, सबको।''

सहसा कुंभकार चुप हो गया। उसके भीतर कुछ घटित हो रहा था। वह बदल रहा था। पहले से दृढ़ और गंभीर हो रहा था।

अंत में वह धीरे से बोला, ''मैं प्रयत्न करूंगा आर्य! कि मैं सुमेधा और झिंगुर को यहां ले आऊं। न मैं वह रहना चाहता हूँ, जो मैं हूँ; न झिगुर वह बना रहना चाहता है, जो वह है। पर झिंगुर साहस नहीं कर सकता, मैं कर सकता हूँ। मैं उन्हें यहां ले आऊंगा।'' उसकी आँखों में अश्रु छलक आए, ''आर्य! अपनी बात से पीछे मत हटना। मैं अपने प्राणों पर खेलने जा रहा हूँ।''

राम ने अपना हाथ अभय मुद्रा में उठा दिया, ''निश्चिंत रहो नवयुवक मित्र! यह राम का वचन है।''

कुंभकार ने हाथ जोड़ दिए। वह जाने के लिए मुड़ा।

''मेरा कुंभ नवयुवक!'' सीता ने उसे टोक दिया।

''आपके लिए मैं अपनी इच्छा से कुंभ बनाऊंगा, देवि! यहीं, इसी आश्रम में! निश्चिंत रहें।'' वह तेजी से ढलान की ओर चल पड़ा।

वे चारों उसे देखते रहे। वह पेड़ों की ओट में छिप गया तो राम मुड़े ''देखो! एक कालकाचार्य हैं कि शस्त्र देखकर सहम गए; और एक यह कुंभकार है, कि अपने बंधन तोड़ने के लिए मचल उठा।''

''यह क्या मात्र वृत्ति का भेद है?'' सीता ने पूछा।

''कुछ वय का, कुछ वृत्ति का।'' राम बोले, ''कुछ सहे गए अत्याचारों की तीव्रता, कुछ मुक्त होने की इच्छा-अनेक बातें हैं सीते!''

''किंतु सिद्धाश्रम में तो हमारे शस्त्र देखकर कोई भयभीत नहीं हुआ था,'' लक्ष्मण जैसे वाचिक चिंतन कर रहे थे, ''वहां का तो बच्चा-बच्चा उठ खड़ा हुआ था। ग्रामीण तथा आश्रमवासी एक साथ संघर्ष करने के लिए जुट गए थे।''

''वहां की स्थिति भिन्न थी,'' राम बोले, ''ऋषि विश्वामित्र के कारण वहां तेजस्विता का इतना दमन नहीं हुआ था। फिर ताड़का के वध ने जन-सामान्य का आत्मविश्वास जाग्रत कर दिया था...।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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