लोगों की राय

पौराणिक >> अवसर

अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

19 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

कालकाचार्य ने जो ठीक समझा, कहा।...किंतु वनवास की बात अनेक ऋषियों से हुई थी-विश्वामित्र, भारद्वाज, वाल्मीकि...किसी ने भी तो उन्हें लौट जाने के लिए नहीं कहा। ये वृद्ध कुलपति ही ऐसा क्यों कह रहे हैं...? क्या उन समर्थ ऋषियों को इस जोखिम का ज्ञान नहीं था, या यह कुलपति उन्हें व्यर्थ ही डरा रहे हैं?...बात कदाचित् ऐसी नहीं थी। यह कदाचित् अपने-अपने सामर्थ्य और दृष्टि की बात थी। विश्वामित्र, भारद्वाज तथा वाल्मीकि समर्थ ऋषि हैं : वे जोखिम उठाने, शत्रु से भिड़ने और सत्य का मूल्य चुकाने का अर्थ जानते हैं; और यह वृद्ध कुलपति कालकाचार्य, मध्यमकोटि के बुद्धिजीवी मात्र हैं। उनमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि झूठऔर अन्याय से जा टकराएं...इस क्षेत्र में तेज को जगाना होगा, जन-सामान्य को समझाना होगा...यह काम राम को ही करना होगा। कालकाचार्य जैसे लोगों को बताना होगा कि घबराकर, अथवा भयभीत होकर भाग जाने से काम नहीं चलेगा...आप अत्याचार के सम्मुख से पलायन कर अपनी जान नहीं बचा सकते। वह आपको ढूंढ़ेगा, घेरेगा और अंत में कुचल डालेगा। अत्याचार से छिपा नहीं जा सकता, उसका तो सामना ही किया जा सकता है...

अंधकार होने से पहले, राम और सीता आश्रम में लौट आए। आश्रम में फल और आहार पर्याप्त था। भोजन की व्यवस्था में कोई परेशानी नहीं थी। भोजन पकाने का काम कोई भी कर लेता था, अथवा सब मिलकर कुछ-न-कुछ कर लेते थे; किंतु नियंत्रण तथा निर्देशन का सर्वाधिकार सीता का था। बीच में आग जलाकर, वे लोग उसके चारों ओर भोजन के लिए बैठे। किंतु भोजन आरंभ करने की स्थिति ही नहीं आई। उससे पूर्व ही आश्रम के बाड़े के फाटक पर किसी के हाथों की थाप सुनाई दी। कोई ऊंचे स्वर में आश्रमवासियों को पुकारकर फाटक खोलने के लिए कह रहा था।

''कोई अतिथि होगा।'' सीता बोलीं।

''फिर भी सावधानी आवश्यक है।'' मुखर ने कहा।

''तुम दोनों की बात ठीक है।'' राम धीरे से बोले, ''अतिथि ही होगा, नहीं तो इस प्रकार पुकारकर फाटक खोलने के लिए नहीं कहता; पर देश-काल को देखते हुए सावधानी भी आवश्यक है। सौमित्र और मुखर, तुम लोग उल्काएं ले जाओ और देखो! मैं और सीता, शस्त्रागार के पास हैं।'' मुखर और सौमित्र ने वैसा ही किया। उल्काओं के साथ, वे अपने शस्त्र ले जाना भी न भूले।

किंतु उन्हें लौटने में अधिक देर नहीं लगी। वे लौटे तो उनके साथ सुमेधा, कुंभकार तथा एक अपरिचित वृद्ध थे। राम और सीता ने उठकर उनका स्वागत किया! कुंभकार अपनी बात का पक्का निकला था।

''भद्र राम! मैं आ गया हूँ, अपनी जान पर खेलकर'', कुंभकार बोला, ''अपने साथ सुमेधा तथा उसके पिता झिंगुर को भी ले आया हूँ।

इन्हें साथ लाने के लिए पर्याप्त परिश्रम करना पड़ा है। ये दोनों ही ऐसा साहस करने के पक्ष में नहीं थे। इनका विचार है कि तुंभरण के अधीन रहकर, फिर भी कुछ दिन जीवित रहने की संभावना थी, किंतु वहां से भागकर, हमने अपने जीवन के समस्त द्वार बंद कर दिए हैं। ये अपने को मृत प्रायः ही मान रहे हैं। अब आप चाहें तो हमारी रक्षा कर, हमें जीवन दान दें, अथवा हमें तुंभरण को लौटाकर मृत्यु के हाथों सौंप दें।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book