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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

लक्ष्मण पेड़ से उतरे और अपने धनुष तथा तूणीर के साथ फाटक के निकट एक वृक्ष पर चढ़ गए। उद्घोष पहले वृक्ष पर ही टिका रहा।

वे लोग व्यूहबद्ध हो चुके थे; और किसी भी प्रकार के आक्रमण का उत्तर देने के लिए प्रस्तुत थे।

सहसा राक्षसों ने अनेक उल्काएं जला लीं। उन्हीं उल्काओं के प्रकाश में लक्ष्मण ने देखा कि राक्षसों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी। अधिक से अधिक वे एक सौ रहे होंगे। चेहरों से वे बहुत निश्चित लग रहे थे जैसे युद्ध करने न आए हों, वन-भोज के लिए पधारे हों। उन्होंने निश्चित रूप से आश्रम वासियों की शक्ति को कम आँका था।

एक उल्काधारी राक्षस ने आगे बढ़कर जब आश्रम के फाटक को आग लगा दी, तब लक्ष्मण के सम्मुख उनकी योजना स्पष्ट हुई। वे लोग युद्ध से अधिक अग्निकांड करने आए थे।

फाटक को आग लगाकर, वे लोग भीतर चले आए; और बड़ी निश्चिंतता से आश्रम के मध्य बने कुटीरों की ओर बढ़ने लगे। जिस समय वे लक्ष्मण के वृक्ष के नीचे से होकर जा रहे थे, लक्ष्मण ने उनके शस्त्रों को अच्छी प्रकार देखा। उनमें से अधिकांश के पास खड्ग थे। चार-पाँच के पास शूल थे, धनुर्धारी तीन-चार ही थे। लक्ष्मण मन-हीं-मन उनकी युद्ध-बुद्धि पर मुस्कराए।

जब अंतिम राक्षस भी लक्ष्मण के वृक्ष से होकर, आगे बढ़ गया पो पीछे से लक्ष्मण ने साधकर बाण मारा...बाण अंतिम राक्षस की पीठ में लगा : वह चीखकर भूमि पर गिरा।

चीख सुनकर सारे राक्षस पलटे। उन्होंने उल्काएं उठा-उठाकर प्रहार करने वाले को खोजना आरम्भ किया। वे समझ गए थे कि आश्रम में कोई जाग रहा था, और उन लोगों का आना अब गुप्त नहीं था। उन्होंने भी स्वयं को छिपाने का प्रयत्न छोड़ दिया था। उनका चीत्कार सुनकर आश्रम के वृक्षों पर सोए पक्षी तक उड़ गए थे।

राक्षस धनुर्धारी आगे आए। उन्होंने धनुष उठाकर शत्रु को देखना आरंभ किया; किंतु उसी क्षण बहुत कम अंतराल में उद्घोष, मुखर तथा सीता के धनुषों ने बाण छोड़ दिए।

लक्ष्मण की ओर पलट जाने के कारण, इस बार फिर बाण राक्षसों की पीठ पर पड़े थे। वे दोनों ओर की मार से एकदम अव्यवस्थित हो उठे, और क्षण-भर में ही अपने अस्त्र उठाए चीखते हुए, आश्रम के फाटक की ओर भाग गए।

बहुत थोड़े से समय में ही वे लोग आश्रम की सीमा से बाहर हो गए; उनके पीछे एक राक्षस चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें पुकारता खड़ा रहा। शायद उसका विचार था कि वे लोग उसके पुकारने से लौट आएंगे; किंतु जब उसके साथी पूरी तरह आश्रम की सीमा से बाहर हो गए और उनके लौटने की कोई संभावना शेष नहीं रह गई, तो वह भी चौकन्ना होकर आगे बढ़ा। तभी सौमित्र वृक्ष से उतरकर, धनुष साधे हुए उसके सम्मुख आ खड़े हुए।

''शस्त्र फेंको।'' उन्होंने आदेश दिया।

राक्षस का चेहरा भय से पीला पड़ गया। खड्ग उसके हाथ से छूटकर भूमि पर गिर पड़ा, ''मेरी तुमसे कोई शत्रुता नहीं है...।'' वह घिघिया रहा था।

''रात के अंधकार में तुम इतने सशस्त्र साथियों के साथ आश्रम में आग लगाने और मार-काट करने आए! अभी तुम्हारी मुझसे शत्रुता ही नहीं है?'' लक्ष्मण कड़ककर बोले, ''लौटो।'

राक्षस प्राणहीन ढंग से मुड़ा। उद्घोष भी अपने वृक्ष से नीचे उतर आया और सौमित्र के साथ-साथ चलने लगा; किंतु राक्षस उसे पहचानने की स्थिति में नहीं था। भय के कारण उसकी आँखों के सम्मुख पूरी तरह अंधकार छा चुका था। वह किसी को भी नहीं देख रहा था...

''यही तुंभरण है।'' उद्घोष ने धीरे से लक्ष्मण को बताया।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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