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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

राम को समझते देर नहीं लगी कि पिता वरदानों का तिरस्कार भी नहीं कर सकते और उन्हें स्वीकार भी नहीं कर सकते। यह उनका सत्य-प्रेम या पुत्र-प्रेम था या मात्र कैकेयी का भय? सत्य-प्रेम तथा पुत्र-प्रेम में द्वन्द्व था या मात्र अपनी सुरक्षा का अंतिम हताश प्रयत्न? वे दुविधा में अस्त-व्यस्त, असंतुलित, विक्षुब्ध-सी अवस्था में पड़े हुए कष्ट भोग रहे थे, और कैकेयी अपने स्थान पर पर्वत-सरीखी दृढ़ खड़ी थी।

सम्राट् ने अपनी आत्मा के संपूर्ण बल को संचित कर, अपनी आँखें खोलीं। कुछ बोलने के प्रयत्न में वे थोड़ी देर बुदबुदाते रहे, और फिर कातर वाणी में बोले, ''मुझे मृत्यु के मुख में मत धकेल कैकेयी। राम चला गया तो मैं जीवित नहीं बचूंगा...मैं हित करने की उत्कट इच्छा में, असंतुलित होकर अनहित कर बैठा। तू भी अपना संतुलन खो बैठी है। भरत का इष्ट करते-करते तू उसका अनिष्ट करेगी...''

सम्राट् की वाणी में न तो आत्मबल था, न सत्य का तेज। वे कैकेयी से याचना कर रहे थे; उसे अपराधिनी ठहराने का साहस उनमें नहीं था। वे कैकेयी से आँखें नहीं मिला रहे थे; कैकेयी के कृत्य को 'अत्याचार' नहीं कह पा रहे थे। उनकी अपनी अपराध-भावना, कैकेयी के क्रूर सत्य से पराजित हो चुकी थी। कैकेयी द्वारा लगाए गए आक्षेपों को वे मौन मान्यता दे रहे थे। उन्होंने अपने प्रमाद में कैकेयी के वय, उसके महत्त्वाकांक्षी जीवन के साथ अन्याय किया था। अपने कर्म का कलुष उनके तेज को पूर्णतः मलिन कर गया था। राम के सामने स्थिति साफ थी। विचारने का न अधिक अवसर था, न आवश्यकता।

प्रत्यक्ष जगत विलीन हो गया था। उनके आस-पास कुछ भी नहीं रह गया था...शून्य, केवल शून्य...और सामने बहुत दूर एक प्रकाश था, कदाचित कोई अग्नि जल रही थी। उस अग्नि में प्रकाश था, आँच थी जलन थी, पीड़ा थी...उसके अनेक मुख थे। वे मुख निरंतर बदल रहे थे-एक मुख विश्वामित्र का था, एक अगस्त्य का था, अत्रि का था, वाल्मीकि का था, भारद्वाज का था, शरभंग का था, सुतीक्ष्य का था...और सारे मुखों से निरंतर एक ही ध्वनि प्रस्फुटित हो रही थी-'आओ! आओ! राम आओ...!'

राम उन चेहरों की आँखों में जैसे बंध गए, उनकी भुजाओं में घिर गए, उस वाणी से सम्मोहित हो गए। राम का हृदय प्रत्येक आह्वान का उत्तर दे रहा था-'मैं आ रहा हूँ...आ रहा हूँ...।'

राम प्रत्यक्ष जगत में लौटे। भीतर अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए। यह वरदान है या शाप? राम की चिंता थी कि अभिषेक को टाल कर वन को कैसे जाएं? कैकेयी ने उनके लिए अवसर उपस्थित कर दिया था।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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