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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

''किंतु यह बालक कहीं बहुत गलत भी नहीं सोचता, गुरुवर!'' सीता बोलीं, ''क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कला का साधक, शस्त्र की साधना भी करे। आपके इस आश्रम में काव्य और संगीत के साथ थोड़ा-सा समय शस्त्र-विद्या को क्यों नहीं दिया जा सकता?''

''मैं तुम्हारी बात का विरोध नहीं करता, पुत्रि!'' वाल्मीकि बोले, ''किंतु यदि ऐसा हो सकता, तो कदाचित् हम प्रत्येक कलाकार को पूर्ण मानव बना सकते। जो सच्चे कलाकार, न्याय-अन्याय, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य तथा अपने सामाजिक दायित्व को समझ सकें और उन्हें कार्यान्वित कर सकें-ऐसे कलाकार, दुर्लभ ही नहीं अलभ्य भी हैं। वैदेही! कला की साधना बड़ी ईर्ष्यालु है। वह कलाकार को अन्य किसी भी दिशा में ताकने का अवकाश नहीं देती। कलाकार क्रमशः अपनी साधना में डूबता चला जाता है कि वह अन्य प्रत्येक क्षेत्र की उपेक्षा कर देता है। संभवतः मेरे भीतर का कलाकार भी, मेरे व्यक्तित्व को पूर्ण नहीं बनने देता, वह स्वयं अपने आपको ही पूर्ण बनाना चाहता है। न मैं शस्त्र विद्या का अभ्यास कर पाया, न अपने शिष्यों को करा पाया। परंतु मैं इसका विरोधी नहीं हूँ। संभव होने पर, इस आश्रम में शस्त्राभ्यास भी कराया जाएगा।''

राम की दृष्टि मुखर के चेहरे पर जमी हुई थी। मुखर ने अपने कुलपति का स्पष्टीकरण सुना, किंतु उसके चेहरे पर अंकित विरोध अभी मिटा नहीं था। राम बोले, तो उनका स्वर अत्यन्त स्नेहिल था, ''मुझे लगता है बंधु! कि तुम्हारे कुटुंब के साथ हुए अत्याचार ने तुम्हारे मन पर अमिट छाप छोड़ी है। वह छाप तुम्हारे मन में निरंतर घृणा उपजाती है; और वह घृणा तुम्हें शांत नहीं होने देती।''

मन की बात प्रकट होते देख मुखर झेंपा, ''आपने ठीक समझा आर्य! लज्जित हूँ, मेरे मन में घृणा का भाव जमा हुआ है। चाहने पर भी, मैं अपने मन में सात्विक भावों को प्रतिष्ठित नहीं कर सका।''

सीता मुसकराईं, ''हम ऐसा क्यों समझते हो मुखर, कि यह घृणा सात्विक नहीं है।''

''देवि! हम घृणा को कैसे सात्विक कह सकते हैं?''

आश्रम की शांति की कुछ उपेक्षा करता-सा लक्ष्मण का किंचित् उच्च स्वर गूंजा, ''अन्याय के विरुद्ध मन में जो घृणा उपजे, वह काव्यशास्त्र में चाहे सात्विक भाव न हो; ब्रह्मचारी! किंतु ऐसी घृणा पूज्य है, पवित्र है, अलौकिक है। उसे तो कण-कण संचित करना चाहिए। यदि संसार में ऐसी घृणा न रहे तो अत्याचार से कौन लड़ेगा? इस घृणा के कारण तुम अपने-आप को विशिष्टजन मान सकते हो : लज्जित होना मात्र अज्ञान है।''

''आर्य लक्ष्मण।'' मुखर अपने कोमल स्वर में बोला, ''आज हमारे परिवेश में रोज ही कोई-न-कोई अत्याचार होता है, प्रतिदिन मानवता की हत्या होती है। यह सारा ऋषि समुदाय, ब्रह्मचारी समाज, आचार्य और मुनि-सब देखते और सुनते हैं। वह लोग अत्याचार के समर्थक नहीं हैं; किंतु उनमें से किसी के भी मन में वैसी तीव्र घृणा नहीं है, जैसी मेरे मन में है। यही मुझे सोचने को बाध्य करता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी प्रकृति ही अधम है, और शेष लोगों की सात्विक प्रकृति के कारण उनके मन में घृणा न उपजती हो।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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