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अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

अंत में आर्य पुष्कल ही उठे, ''सम्राट् यदि अनुमति दें, तो मैं उनके विचारार्थ विधान की परंपरा का उल्लेख करना चाहूँगा, जिसके अनुसार नगर-रक्षा का कार्य अंग-रक्षकों के कर्त्तव्य से पृथक्...''

और सहसा जैसे विस्फोट हो गया।

सम्राट् अमर्यादित रूप से कुपित हो गए। उनका चेहरा तमतमा गया था। नथुनों के साथ अधर भी फड़क रहे थे। उनका स्वर धीमा होता तो सर्प का फूत्कार लिए होता, ऊंचा होता तो फटने-फटने को होता...

''प्रत्येक सभासद् को ज्ञात हो कि अभी दशरथ ही सम्राट् है और इस सिंहासन पर विराजमान ही नहीं है, सत्ता संपूर्णतः उसके अधिकार में है। मैं सम्राट् की सत्ता की अवहेलना अथवा उसके अवमूल्यन की अनुमति नहीं दूंगा। सम्राट् के आदेशों पर, विचार-विमर्श अथवा वाद-विवाद नहीं होगा। मैं यह चेतावनी दे रहा हूँ कि सम्राट् का विरोध करने वाले, न केवल पदच्युत होंगे, वरन् दंडित भी होंगे। सम्राट् का विरोध, राजद्रोह माना जाएगा, जिसका परिणाम भयंकर होगा।''

परिषद् जड़ हो गई। सम्राट् के निर्णय तो तर्कशून्य थे ही, उनका व्यवहार भी पर्याप्त चकित करने वाला था। सम्राट् अपने इस वय में अपनी नम्रता नहीं, शिथिलता के मध्य इतना कठोर तथा परंपरा-विरोधी व्यवहार करें, अकल्पनीय बात थी।

सभा से उठकर आ जाने के पश्चात् भी दशरथ का मन क्षण-भर को शांत नहीं हुआ। उनके मन में आज राज-परिषद् में हुई एक-एक बात, कई-कई बार पुनरावृत्ति कर चुकी थी। एक-एक पार्षद उनकी

कल्पना की आँखों के सामने था। एक-एक व्यक्ति की कही हुई, एक-एक बात, जैसे उनकी स्मृति पर खोद दी गई थी...और अंत में उनके विचार दो व्यक्तियों पर आ टिके थे। महाबलाधिकृत इंद्रसेन तथा न्याय-समिति के सचिव पुष्कल!...क्या महाबलाधिकृत मेरा विरोधी है? यदि है, तो क्यों?

किंतु, महाबलाधिकृत ने कभी राजनीति में विशेष रुचि नहीं ली। किसी का पक्ष अथवा विपक्ष, उसने नहीं साधा। वह सैनिक परंपरा में पला हुआ था। अधिकारी के सम्मुख सिर झुका देने वाला, शस्त्र-व्यवसायी है। उसका न कैकेयी से विशेष संबंध है, न भरत से, न कैकय राजदूत से, न युधाजित से...उसने जो कुछ कहा, वह केवल सैनिक कार्य-पद्धति की दृष्टि से कहा होगा। उस व्यक्ति को इतना बता देना ही पर्याप्त होगा कि वह अपने काम से काम रखे। राज-परिषद् के षड्यंत्रों अथवा पक्ष-विपक्ष में न पड़े।...न्याय-अन्याय का विचार, उचित-अनुचित का विवाद, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का विश्लेषण बड़ी अच्छी बात है-किंतु आज की परिस्थितियों में सबसे अच्छी बात है-मौन!...यदि वह सम्राट् को अप्रसन्न करने का प्रयत्न नहीं करेगा, तो सम्राट् उससे अप्रसन्न नहीं होंगे...। दशरथ का मन कहता था, महाबलाधिकृत अपने लाभ की बात समझ जाएगा। किंतु पुष्कल!

वह बात-बात पर विधान की बात करता है। वह न्याय-समिति का सचिव है।...ठीक है, सारे विधानों तथा न्याय-समितियों के सिर पर स्वय सम्राट् होते हैं; किंतु पुष्कल यदि प्रचार करे, तो जन-सामान्य की दृष्टि में, वह सम्राट् को अन्यायी अथवा अवैधानिक कार्य करने वाला व्यक्ति ठहराएगा। प्रजा की दृष्टि में सम्राट् का सम्मान घटेगा, जो पहले ही बहुत अधिक न था। यह प्रचार विरोधी शक्तियों के लिए लाभदायक होगा।...पर पुष्कल ऐसा क्यों करेगा?

कदाचित् वह ऐसा भी न करे। किंतु, वह कैकेयी का संबंधी है, और कृपा-पात्र भी। उसे या कैकेयी को यह आभास मिलते ही कि सम्राट् ने उनका पक्ष दुर्बल करने के लिए कुछ भी किया है-भयंकर कोलाहल होगा। तो क्या पुष्कल को अपदस्थ कर बंदी कर लिया जाए?

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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