पौराणिक >> अवसर अवसरनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
ऐसी स्थिति से परिषद् को राज-गुरु तथा अन्य ऋषि ही उबार सकते थे। उन पर सम्राट् का अनुशासन लागू नहीं होता था। किंतु, सम्राट् द्वारा याचना होने पर ही गुरु तथा अन्य ऋषि अपना अभिमत देते थे, अथवा बहुत असाधारण स्थिति होने पर ही वे लोग सैद्धांतिक हस्तक्षेप करते थे...किंतु आज की बात तो सामान्य-सी वैधानिक बात थी। सबको मौन देख, सम्राट् ने विषय को यहीं समाप्त मान लिया। वे सभा में आने के पश्चात पहली बार स्वयं सक्रिय हुए, ''नगर-रक्षा के लिए कौन-सी सेना नियुक्त है महाबलाधिकृत?''
''साम्राज्य की तीसरी स्थायी सेना, सम्राट्!''
''कितने समय से यह दायित्व इस सेना के जिम्मे है?''
''उसे यह कार्य संभाले, केवल छः मास हुए हैं सम्राट्!''
''उसका महानायक कौन है?''
''स्वयं राजकुमार भरत।'' महाबलाधिकृत ने सूचना दी, ''किंतु अयोध्या से उनकी अनुपस्थिति में सेना, उपनायक महारथी उग्रदूत की आशा के अधीन है।''
दशरथ ने कुछ क्षणों तक चिंतन का नाटक किया; और फिर अपना पूर्व-निश्चित निर्णय सुना दिया, ''महाबलाधिकृत! साम्राज्य की तीसरी स्थायी सेना के उपनायक को आदेश दें कि वह अपनी सेना को लेकर, उत्तरी सीमांत पर स्थित स्कंधावार में चले जाएं। वहां उनकी आवश्यकता पड़ सकती है। यह प्रयाण कुल प्रातः ही हो जाना चाहिए।''
''जो आज्ञा सम्राट्!''
''अयोध्या की रक्षा का दायित्व, मेरे अंग-रक्षक दल के महानायक चित्रसेन को सौंप दिया जाए।'' सम्राट् का स्वर ऊंचा था।
महाबलाधिकृत 'जो आज्ञा' न कह सके। तीसरी सेना का स्थानांतरण यद्यपि अनियमित था; क्योंकि नियमतः एक सेना को एक स्थान पर साधारण परिस्थितियों में प्रायः तीन वर्षों तक रखा जाता है...फिर भी संभव है कि सम्राट् के मन में कोई असाधारण बात हो, संभव है, उनके उस आदेश के पीछे कोई तर्क हो। यद्यपि ऐसे आदेशों के कारण महाबलाधिकृत से गुप्त नहीं रखे जाने चाहिए; और ऐसे आदेशों का पालन महाबलाधिकृत से उसकी सहमति लिए बिना नहीं होना चाहिए; फिर भी सम्राट् कभी-कभी विशेषाधिकार का उपयोग कर लेते हैं। अंततः ऐसे निर्णय लाभदायक ही होते हैं। किंतु नगर-रक्षा का दायित्व सम्राट् के निजी अंग-रक्षकों को सौंप देना...क्या हो गया है सम्राट् की बुद्धि को?
''क्षमा हो सम्राट्!'' महाबलाधिकृत बहुत साहस कर बोले, ''नगर-रक्षा का दायित्व सम्राट् के अंग-रक्षक दल को सौंप देना, अपूर्व निर्णय है। अंग-रक्षकों की संख्या इतनी नहीं है कि वे सम्राट् की निजी रक्षा, राजसभा, राज-कार्यालयों तथा राजप्रासादों की रक्षा के साथ-साथ नगर- रक्षा का दायित्व भी संभाल सकें। सम्राट् विचार करें, यह आदेश अव्यावहारिक है। यह तब तक व्यावहारिक नहीं हो सकता, जब तक कि अंग-रक्षकों की संख्या एक पूरी सेना तक न पहुंचा दी जाए...।''
सम्राट् ने महाबलाधिकृत की बात सुनी; और पुनः कटु स्वर में उत्तर दिया, ''महाबलाधिकृत को कदाचित् ज्ञात हो कि सम्राट् ने अपनी आयु इस सिंहासन तथा राजसभा में ही व्यतीत नहीं की है। मैंने सेनाएँ, स्कंधावार तथा सेना-व्यवस्थाएं ही नहीं देखीं, बड़े-बड़े युद्धों में एकाधिक सेनाओं का सफल नेतृत्व भी किया है। महाबलाधिकृत मुझे सीख न दें कि कौन-सी सेना किस कर्त्तव्य के लिए उपयुक्त है।''
विचित्र स्थिति थी! व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी व्यवस्था-संबंधी तर्क सुनने को प्रस्तुत नहीं था। अनुभवों की बात कहकर उन्होंने महाबलाधिकृत का मुख बंद करने का प्रयत्न किया था। सम्राट् का व्यवहार देख महाबलाधिकृत हत्प्रभ हो चुके थे। महामंत्री आरंभ से ही निरस्त-से थे। गुरु ने भी अपूर्व चुप्पी धारण कर रखी थी।
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