लोगों की राय

पौराणिक >> अवसर

अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2884
आईएसबीएन :81-8143-195-2

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

19 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

''जनते हो।'' आगंतुक पीड़ा और क्रोध के मिश्रित स्वर में बोला, ''तुम जो अपमान कर रहे हो, उसके लिए तुम्हें कभी क्षमा नहीं किया जाएगा। तुम्हें कदाचित् मालूम नहीं कि मैं इंद्र का पुत्र जयंत हूँ।''

''इंद्र का पुत्र!'' राम की स्मृति के सारे तंतु एक साथ ही झनझना उठे, ''तुम बाप-बेटा एक ही काम करते फिरते हो दुष्टो! मेरे मन से, अहल्या पर हुए अत्याचार की छाया अभी मिटी नहीं, और तुम आ गए। दुष्ट सत्ताधारी के संपन्न विलासी पुत्र! मैंने इंद्र को सम्मुख पाकर, उसकी

हत्या का प्रण किया था; वह तो मेरे सामने नहीं आया। आज तुम आए हो। बोलो, तुम्हें क्या दंड दिया जाए?''

राम का खड्ग जयंत के वक्ष पर जा लगा।

जयंत को पसीना आ गया। उसका स्वर कांप गया; पर वह अपना संपूर्ण साहस बटोरकर, निर्भयता का अभिनय करता हुआ बोला, ''तुम ब्रह्मा से नहीं डरते? तुम इंद्र से नहीं डरते?''

''मैं किसी दुष्ट अथवा दुष्टता के संरक्षक से नहीं डरता।'' राम बोले, ''मैं ऐसे लोगों से घृणा करता हूँ। बड़े-बड़े नाम लेकर मुझे मत डराओ। सत्ताधारियों और उनके पुत्रों के अत्याचारों की कथा सुनकर, मेरे मन में घृणा की आग धधकने लगती है। मैं दुष्टता का नाश करने को वचनबद्ध हूँ। चाहे वे दुष्ट कितने ही सबल, सत्ता-संपन्न, धनवान हों।''

राम के पांव का दबाव बढ़ता ही जा रहा था और खड्ग की नोक जयंत को बुरी तरहु चुभने लगी थी। उसका निर्भयता का अभिनय चल नहीं पाया। उसके चेहरे का साहस, राम की अडिगता का ताप पाकर हिम के समान गल गया।

उसके चेहरे पर दीनता आ गई। स्वर घिघियाने लगा, ''मुझे क्षमा करो राम! मैं तुम्हारे चरण छूकर, तुमसे जीवन की भीख मांगता हूँ।'' उसने दोनों हाथों से राम का पांव पकड़ लिया। आँखों से अश्रु बहने लगे; और होंठ रोने के लिए फैल गए। राम ने अपना पग उसके कंठ से हटा दिया, ''इतने ही वीर थे तुम इंद्रपुत्र जयंत! सीता पर प्रहार करते हुए, कदाचित तुम्हें अपना कोमल कंठ याद नहीं रहा...।''

''मुझे क्षमा करो राम!'' जयंत ने भूमि से उठकर, राम के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया, ''मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ। मुझे प्राणों की भीख दो। मुझे अभय दान दो।''

''थोड़ी देर पहले तो तू देवी सीता की शरण में आया था दुष्ट!'' सुमेधा ने घृणा से पृथ्वी पर थूक दिया।

राम मुस्कराए, ''मुझे मेरे आदर्शों में बांधने की कुटिलता मत करो पापी पिता के पापी पुत्र! क्षत्रिय, शरण में आए व्यक्ति की रक्षा अवश्य करता है, किंतु मैं तुम जैसे नीच की शरण-याचना को एक षड्यंत्र मानता हूँ; अभय नहीं दूंगा, चाहे प्राण दंड न दूं। दंड तुम्हें अवश्य मिलेगा। मैं तुम्हारे प्राण नहीं लूंगा; पर अंग-भंग अवश्य करूंगा।''

''अंग-भंग!'' जयंत की घिग्घी बंध गई।

''हां! अंग-भंग!'' राम बोले, ''सीता पर दुष्ट दृष्टि डालने के कारण तुम्हारी आँख फोड़ दूं अथवा प्रहार करने के कारण एक हाथ काट डालूं?''

''क्षमा करो राम!'' जयंत रोता हुआ राम के चरणों से लिपट गया, ''पिताजी से कहकर जो चाहोगे दिलवा दूंगा...राज, धन...''

''विलंब मत करो।'' राम बोले, ''मेरी बात का उत्तर दो। विलंब तुम्हारे लिए हितकर नहीं होगा। लक्ष्मण आ गए तो मेरे निषेध पर भी वे तुम्हारी हत्या कर डालेंगे...''

''लक्ष्मण।'' जयंत क्षण-भर के लिए जड़ हो गया, पर फिर जैसे जागकर रोता हुआ बोला, ''मेरा हाथ मत काटो। मेरा हाथ मत...।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पन्ह्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai