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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


पापा ने उनसे पूछा, 'अपना मकान तो इतने सस्ते में बेच दिया, अब तो उसके डबल रुपए देने पर भी मकान वापस नहीं मिलेगा।

कलकत्ता जाने के प्रसंग में पापा अक्सर कहते थे, ‘ढाका में तकलीफ़ है, कलकत्ते में नहीं है? वहाँ भी तकलीफ़ है। वहाँ तुम्हारे नाते-रिश्तेदार हैं, मुझे मालूम है। यहाँ न हो, हमें ही अपना रिश्तेदार मान लो।'

दो महीनों बाद काकी-माँ ने हमारे घर के पास ही, एक घर किराए पर ले लिया। वे कलकत्ता नहीं जाना चाहती थीं। उन्होंने बाकी ज़िन्दगी ढाका में ही रहकर, नितून काका की याद में गुज़ार देने का फैसला किया। उसी दिन से पापा, नित्न काका के बीवी-बच्चों के लिए काफ़ी कुछ अभिभावक जैसे बन गए। जिस घर के लोग, अपनी जड़ से उखड़कर, कहीं और चले जाने को आमादा थे, पापा ने उन्हें अपना प्यार-दुलार देकर, उन लोगों की निगरानी की। सुभाष के परिवार के संग हमारा रिश्ता-नाता किसी मुहल्लेदार की तरह नहीं था। हमारे सम्बन्ध बिल्कुल और तरह के थे। अपने बहुत-से सगे रिश्तेदारों के साथ भी, हमारा ऐसा नाता नहीं था। आज भी काकी-माँ की किसी भी ज़रूरत पर हम लोग ही उनके पास खड़े होते हैं। काकी-माँ अपने घर में बैठी-बैठी सिलाई-मशीन पर अपने कपड़े सिल-सिलकर, अपना घर चलाया था। उन्होंने अपने छोटे बेटे, सुजीत को किसी बढ़िया स्कूल में भर्ती करा दिया था। हालाँकि अभाव-कड़की की गृहस्थी थी, लेकिन काकी ने हिम्मत नहीं छोड़ी। सुभाष कॉलेज में दाखिला लेने के बजाए, कहीं नौकरी करना चाहता था, लेकिन पापा ने उसकी कॉलेज-पढ़ाई का खर्च अपने जिम्मे ले लिया।

कॉजेज पास करने के बाद उसने विश्वविद्यालय में क़दम रखा और एम.ए. की डिग्री भी हासिल की। यही लड़का, सुभाष, अगर हमारे घर के बेटों जैसा नहीं हुआ, तो और कौन होगा? कॉलेज में आने के बाद मैंने ही आरजू से सुभाष का परचिय कराया था। उसी आरजू के साथ सुभाष की दोस्ती, मुझसे ज़्यादा पक्की है। उच्च वित्त और निम्नवित्त की आपसी दोस्ती, कभी गहरी नहीं होती। यह बात आरजू और सुभाष ने गलत साबित किया है। आरजू! सिर से पाँव तक शरीफ़ लड़का! कहीं से काफ़ी लजाधुर भी! उसने सुभाष के हाथ में गुपचुप रुपए थमाने की कोशिश की, लेकिन सुभाष ने नहीं लिया। लेकिन गुलशन में स्थित, आरजू की कोठी पर हम सब प्रायः रोज़ ही हमलावर होते थे; दोपहर का खाना सपोटना, हमारे लिए काफ़ी कुछ नियम बन चुका था। आरजू की पीठ पर धौल जमाकर बातें करना, उसके वाल खींचना, उसके बुचके-बुचके दोस्तों के साथ धूम मचाना, हमारे रोज़मर्रा के खेल बन चुके थे। आरजू को मर्द समझकर, हमने कभी उससे कोई दूरी नहीं रखी। वह कहीं से अपने से अलग भी नहीं लगता था। उसके हाथ अपने हाथों में लेकर, मुझे अपने भीतर झरने का शोर कभी सुनाई नहीं दिया, जैसे सुभाष के साथ भी, कभी मेरे अन्दर जल का मधुर संगीत नहीं गूंजा।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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