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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास

13


हसन घर लौट आया। उसके पैर पर अभी भी प्लास्टर चढ़ा हुआ था। अब रानू भी उसके सिरहाने बैठी-बैठी फफक-फफककर नहीं रोती। हबीब, दोलन और सुमइया को लेकर चटगाँव, अनीस के पास गया हुआ था। सेवती लगभग हर रोज़ ही हसन को देखने आती थी। नई दवाएँ भी लिख जाती। कुछेक ज़ख्म सूखने का नाम ही नहीं ले रहे थे। वह रोज़ उन ज़ख्मों पर बैन्डेज कर जाती। सासजी का देह-दर्द आजकल पहले से ज़्यादा बढ़ गया था। सेवती इसकी भी रोक-थाम की दवा दे जाती। दवाओं के सिर्फ नाम ही नहीं लिखती थी, दवा-कम्पनियों से उसे जो फ्री-सैम्पल की दवाएँ मिलती थीं, उदार हाथों से उन्हें वे दवाएँ भी दे जाती थी। अब सेवती जैसे ही ऊपर की मन्ज़िल में क़दम रखती, सासजी हड़बड़ा जाती थीं। सेवती को वह क्या खिलाएँ...! अच्छा, सेवती, यह खा लो...। चलो, छोड़ो, यह नई चीज़ खाओ! बंगाली लोग लाड़-प्यार दिखाने का इसे ही सबसे अच्छी राह समझते हैं-'किसी को खिलाना!' सेवती से मेरी धनिष्ठता को, मेरी सासजी मुग्ध भाव से निरखती रहती थीं।

वह उसके मुँह पर ही उसकी तारीफ़ करती थीं, 'वा-ह, कितनी भली औरत है! कितनी दरियादिल!...तुम बड़ी लक्ष्मी-बिटिया हो, सेवती! पता नहीं, कहीं उन्हें मन-ही-मन यह अफ़सोस भी होता हो कि-काश, उन्हें ऐसी ही बहू मिली होती, तो कितना भला होता। अपनी जगह, सेवती की कल्पना करके मैं सिहर उठी! वंश की मान-मर्यादा। आख़िर कहाँ जाकर खड़ी होती है, यह देखने का मन हो आया। कानों में आला खोंसकर, मरीज़ के दिल या फेफड़ों की जाँच करने वाली औरत बाहर से तो भली लगती है, मगर वही औरत जब पुत्रवधू बनकर उनके घर में आ बसे-और लोगों की नाड़ी जाँचती फिरे या हाथ में छुरी-कैंची लेकर ऑपरेशन करे और बावर्चीखाने में झाँके तक नहीं, सुबह उठकर, जूते चटखाती हुई अस्पताल दौड़ जाए। अस्पताल से लौटकर, पका-पकाया खाना किसी तरह मुँह में लूंसकर, फ़ौरन प्राइवेट क्लिनिक के मरीजों को देखने चल पड़े, रात को देर से घर लौटे या रात-भर लौटे ही नहीं, तब वह किसी को फूटी आँखों नहीं सुहाएगी।

इस महीने भी मैं दसवें से सोलवें दिन के इन्तज़ार में थी। जब वह दिन आ पहुँचा, तो सेवती के यहाँ से कभी हसन के लिए नया बैन्डेज लाने, कभी सेवती को जो-तो ख़बर देने या फिर सेवती के यहाँ चाय के आमन्त्रण का बहाना बनाकर, मैं कुछ-कुछ देर के लिए, उस वक़्त उस घर में जा पहुँचती, जब समूचा घर निर्जन और अकेला होता था...!

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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