लोगों की राय

उपन्यास >> शोध

शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

362 पाठक हैं

तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


इस बार हारुन ने जुबान खोली, मगर आँखें नहीं खोली। आँखें अधमुँदी ही रहीं।

दरवाज़े की तरफ़ आँखें गड़ाए हुए, उसने जवाब दिया, उल्टियाँ बन्द होने की
दवा घर में मौजूद है, ले लेना।'

शिप्रा के लिए बाँहों का झूला, मेरी आँखों के आगे झूल उठा।

'क्या कहा तुमने?'

हारुन ने मुझे उल्टियाँ बन्द होने की दवा ले लेने का सुझाव दिया। उसका सुझाव सुनने के बाद भी मैंने दुवारा पूछा कि आगे क्या कहा, क्योंकि विश्वास न होने के बावजूद, मेरे मन में यह जाँच-परख का चाव जाग उठा कि उसने क्या सच ही इसे आम उल्टी मान ली है। उसने क्या कहा, यह दुबारा पूछने पर, वह अपने जवाब के बारे में दुवारा सोचेगा, शायद भूल-सुधार करे या मन या दिमाग़ में उल्टियाँ बन्द करने के लिए, दवा लेने के बजाए कोई और प्रस्ताव या सुझाव दे। उसे दुबारा जवाब देने का मौका देकर, उसके मन की बात जानने की एक और वज़ह भी थी। हारुन जब बाहर निकलता था, उसके पीछे-पीछे सदर दरवाज़े तक जाना और दरवाज़ा ज़रा अधखुला छोड़कर खड़े रहना, रोज़ का नियम था। जब तक हारुन बाहर निकलकर आँख से ओझल नहीं हो जाता, तब तक मैं वहीं खड़ी रहती थी। जब वह आँखों से बिल्कुल ही ओझल हो जाता था, तब दरवाज़े पर खील लगाकर घर की बहू, घर की तरफ़ मुखातिब होती थी। पहले ही दिन मुझे आगाह कर दिया गया था कि हारुन को पीछे से कभी आवाज़ न दूं। पीछे से आवाज़ लगाना अशुभ होता है। यह बात याद रखकर, आज भी दरवाजे पर खड़े-खड़े उसे जाते हुए देखती रही। चूंकि आज कोई व्यतिक्रम दिन नहीं था, चूँकि हर वहस्पतिवार की तरह, आज भी वृहस्पतिवार था, इसलिए मैंने कोई जश्न-वश्न मनाने का सवाल नहीं उठाया। वैसे पीछे से एक बार आवाज़ देने की चाह नहीं जगी. ऐसा भी नहीं था। एक बार उसे आवाज़ देकर, यह पूछने का मन ज़रूर हुआ कि तुम क्या बिल्कुल ही नहीं समझे कि ऐसा क्यों हो रहा है? लेकिन मैंने नहीं पूछा। अमंगल की आशंका से अपनी चाह का गला घोंटकर, मैंने दरवाज़े पर खील चढ़ाई और घर की बहू ने घर की तरफ़ रुख किया। घर में दुनिया भर का काम पड़ा था। अभी तो घरवालों के लिए नाश्ते की तैयारी में जुटना था। रसूनी रोटी बेलेगी, चूल्हे के सामने खड़ी-खड़ी, मुझे वे रोटियाँ सेंकनी होंगी। वैसे रोटियाँ तो रसूनी ही सेंक सकती है, मगर मैं रोटियाँ सेंकूँ, तो घरवाले खुश होते हैं। मैं इस घर की लक्ष्मी बहू हूँ, इस बारे में वे लोग निश्चिन्त होते हैं। रोटी के साथ और क्या पकाया जाए, अंडे तले जाएँ या कोई सब्जी तैयार की जाए। यह फैसला भी मुझे लेना पड़ता है। यह फैसला रसूनी भी ले सकती है, लेकिन अगर मैं लूँ, तो घरवालों को अच्छा लगता है। घरवाले खुश हों, तो हारुन भी खुश होता है। बात दरअसल यह है कि मूल रूप से हारुन को ही खुश करने के लिए, मैं पिछले डेढ़ महीनों से इस घर के सभी लोगों के लिए, तीनों वेला खाने की तैयारी, घर-द्वार की सार-सँभाल, कपड़े-लत्ते धोना वगैरह सारे काम किए जा रही हूँ। सिर पर से आँचल, पिछले डेढ़ महीने में एक बार भी नहीं खिसका। सर से ऑयल एक वार भो न खिसके, तो घर के सभी लोग खुश होते हैं। घर के सभी लोग खुश हों, तो हारुन भी खुश होता है, इसलिए!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book