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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


लेकिन किसी भी वृहस्पतिवार की तरह आज भी वृहस्पतिवार ही था, नियम तोड़ने का कोई ख़ास दिन भी नहीं था, फिर भी, रसूनी को वावर्चीखाने में रोटी वेलते हुए देखकर भी, उस तरफ न जाकर, मैं सीधे अपने सोने के कमरे में जाकर, विस्तर पर आ लेटी। जैसे मैं अपने अन्दर गोल-गोल घूमते हुए ऊपर उठने वाली चीज़ को रोकने की कोशिश में असफल रही थी, उसी तरह इस वक्त छाती चीरकर निकली हुई लम्वी उसाँस को भी मैं नहीं रोक पाई। मेरी आँखों के आगे शिप्रा का चेहरा तैर उठा और दिल के किसी कोने में हल्की-फुल्की ईर्ष्या, किसी चिड़िया की तरह घोंसला बनाने लगी। शिप्रा ऐसा क्या है, जो दीपू उसे गोद में उठाकर नाच उठा और हारुन ने सूखे-सूखे लहजे में उल्टियाँ बन्द करने के लिए, कोई दवा ले लेने की सलाह दे डाली? शिप्रा क्या मुझसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी है? ज़्यादा खूबसूरत है? क्या वह प्यार करने के हुनर में मुझसे बेहतर है? मेरा कोई जात-शत्रु भी हो, वह भी यह क़बूल करने को लाचार होगा कि रूप-गुण में, मैं शिप्रा से एक क्या, दो काठी बढ़-चढ़कर हूँ।

शिप्रा मेरे साथ एक ही स्कूल में पढ़ती थी, कॉलेज में भी साल-भर साथ-साथ पढ़ने के बाद, परीक्षा दिए बिना ही, रंग में भंग करते हुए, अपनी ही क्लास के एक लड़के, दीपू से ब्याह रचा लिया; चींटी की तरह गिनती के असवाब और कुछेक बर्तन इकट्ठे करके, अपनी गृहस्थी चला रही है! खैर, प्यार तो मैंने भी किया था। मुहब्बत करके व्याह मैंने भी किया था, निपुण हाथों से गृहस्थी मैं भी चला रही हूँ, पान से चूना तक नहीं झरने देती; ज़िन्दगी का हर दिन पति-परमेश्वर के हुक्म और पसन्द मुताबिक गुज़रता है; दिन ही क्यों, हर बेला, हर पल, उनके हुक्म और पसन्द मुताबिक! फिर भी इतनी विषमता, आख़िर क्यों? विषमता की वज़ह ढूँढ़ निकालने में भी मैं व्यर्थ हूँ! लम्बी उसाँस भरने की एक वजह यह भी है कि दीपू ने शिप्रा को गुलशन के किसी क्लिनिक में भर्ती कराया। दीपू के नाते-रिश्तेदारों ने मन्तत्य दिया कि इतने सारे रुपए खर्च करने की क्या ज़रूरत थी? सरकारी अस्पताल में भर्ती करता, तो काफ़ी सारा ख़र्च बच जाता। लेकिन दीपू ने रिश्तेदारों की सलाह पर ध्यान नहीं दिया। उसके पास उतने रुपए भी नहीं थे। लेकिन उसे खबर मिली कि सरकारी अस्पताल में वक़्त पर डॉक्टर नहीं मिलता, डॉक्टर मिल भी जाए, तो बेड नहीं मिलता; भीड़ बढ़ जाए, तो मरीजों को बेड से धकियाकर फ़र्श पर उतार दिया जाता है। इसलिए उसने अपने दोस्त से उधार लेकर, शिप्रा को क्लिनिक में भर्ती कराया। मैं भी शिप्रा को एक दिन क्लिनिक में देखने गई थी। शिप्रा से ज़्यादा मैं दोपू की व्यस्तता देखती रही। शिप्रा कब फल का रस लेगी, कब दूध, कब दवा, इन सबके बारे में दीपू काफ़ी उत्तेजित नज़र आया। वक़्त पर वह सबकुछ उसके मुँह से लगा देता था। उसे खिलाने-पिलाने के बाद, वह उसके बालों में हाथ फेरता रहा; उसके पेट पर नाक रगड़कर वह वार-वार दोहराता रहा-मेरा छोटू बाबू-सोना क्या कर रहा है? शिप्रा अगर हल्के से दर्द से भी कराह उठती, तो वह दौड़कर डॉक्टर को, डॉक्टर न मिला, तो नर्स को आवाजें देने लगता था। कभी नर्स, कभी डॉक्टर आकर शिप्रा की जाँच करता और दीपू को इतना परेशान न होने की सीख दे जाता था।

खूबसूरत-सी एक नर्स ने तो आँख भरकर यहाँ तक कह डाला, पहली-पहली वार वाप बननेवाले मर्द ऐसे ही परेशान नज़र आते हैं।'

दूर एक कुर्सी पर बैठी-बैठी, मैं यह सब देखती रही और मन-ही-मन शिप्रा की जगह अपने को विठाकर में कल्पना करती रही, मैं चाँद जैसे बच्चे की माँ बन गई हैं, मन-ही-मन उस बच्चे को खब-खूब प्यार भी करती रही।

अचानक मेरा सिर दुवारा घूम गया। देह के अन्दर कोई गोला घूमते हुए ऊपर उठने लगा। मैं बाथरूम की तरफ़ दौड़ पड़ी और फिर उक. हो आई। घर में हारुन की माँ, अब्वा, दो भाई-भाभियाँ, बहन-बहनोई, उनके बच्चे-किसी को भी खबर नहीं थी कि इसी घर में कोई इन्सान इस क़दर बीमार है। उसे उल्टियाँ हो रही हैं। उसकी कोख में शायद बच्चा है। शायद क्यों, निश्चित तौर पर, वह माँ बनने वाली है। ये सब लक्षण इसी बात के संकेत हैं।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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