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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


बाथरूम से निकलते ही, सामने खड़ी रसूनी पर नज़र पड़ी। मुझे अन्दाज़ा हो गया कि वह क्यों खड़ी है। घरवाले नीन्द से जाग चुके हैं। अब उन लोगों को नाश्ते का इन्तज़ार होगा। अब उन्हें तश्तरी में गरम-गरम रोटियाँ चाहिए, जबकि रोटियाँ अब तक सिंकी ही नहीं, क्योंकि रोटियाँ सेंकने मैं बावर्चीखाने में गई ही नहीं। रसूनी की आँखों में सवाल झलक उठा-क्यों? रसूनी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी। वह मेरी आँख देखकर ही समझ गई कि आज बावर्चीखाने में जाने का मेरा मन नहीं है। रसूनी ने मुझे तसल्ली दी कि आज वह खुद ही रोटियाँ सेंक लेगी, अण्डे भी तल लेगी और सबको नाश्ता भी करा देगी। वह मेरी सारी जिम्मेदारी, पूरी निष्ठा से निभा देगी।

मैं दुबारा बिस्तर पर पेट के बल लेट गई। बाहर की तपती हुई धूप भी खिड़की की राह, बिस्तर पर आ लेटी। उस धूप में पीठ तप आई, मगर खिड़की का पर्दा खींचने का मन नहीं हुआ। पर्दा खींच दिया, तो आकाश का वह टुकड़ा गुम हो जाएगा। वह टुकड़ाभर आकाश मुझे बेहद प्रिय है। दिन-भर का कामकाज पूरा करने के बाद, मैं अपने कमरे में बैठी-बैठी, अपना वही बित्ता-भर आकाश निहारती रहती हूँ। मन-ही-मन हर दिन ही पंछी बन जाती हूँ और आकाश में उड़ती फिरती हूँ। इतना नन्हा-सा आकाश भी अगर ढंक जाए, तो मेरा दम घुटने लगता है। यह टुकड़ा-भर आकाश भी अगर टैंक जाए, तो मेरी अपनी दुनिया के नाम पर कुछ भी नहीं बचेगा। हमारा कमरा, यानी जिस कमरे में मैं और हारुन रहते हैं। वह मकान के दक्षिण तरफ़ है। कमरे से जुड़े बरामदे में, शाम के वक्त खड़े हो, तो सरसराती हुई हवा, मानो देह-मन बहा ले जाती है, उस बरामदे से हद-से-हद मकान की बगिया भर नज़र आती है। बाकी सब पक्की-दीवारें। रास्ते में आते-जाते मुसाफ़िरों, दौड़ती हुई गाड़ी-सवारियों को देखना मुझे बेहद अच्छा लगता है। हर पल ऐसी गतिशील ज़िन्दगी की तस्वीरें देखते रहने का मन होता है। बग़ल में जिस बरामदे से सड़क नज़र आती है, वह रानू और हसन के कमरे से जुड़ा हुआ है।

शुरू-शुरू में मैं एकाध दिन उस बरामदे में जा खड़ी हुई।

सास जी ने फ़रमाया, घर की बहू यूँ सड़क पर आते-जाते लोगों को निहारती रहे, यह शोभा नहीं देता। इसके अलावा अड़ोसी-पड़ोसी भी थू-थू करेंगे।

हारुन को भी खुद सासजी ने ही इत्तला दे डाली कि मैं मौका पाते ही सड़क की तरफ़ खुलने वाले बरामदे में खड़ी रहती हूँ।

उनसे खबर पाकर, हारुन ने मुझे डाँट पिलाई, तुममें क्या बिल्कुल ही अक़्ल नहीं है, झूमर? तुम ज़्यादातर भूल जाती हो कि तुम इस घर की बहू हो।'

मैं बखूबी जानती हूँ, हारुन की यह बात सच नहीं है। इस घर में क़दम रखने के बाद, कभी, पल-भर के लिए भी मेरी यह मज़ाल नहीं हुई कि मैं सोचूँ कि मैं इस घर की बहू नहीं हूँ। यहाँ काफ़ी धीमी आवाज़ में बात करना होता है; बिल्कुल फुसफुसाहट! सिर्फ आवाज़ ही धीमी नहीं करनी होती बल्कि निगाहें भी झुकाए रखना होता है। कहीं किसी बड़े-बुजुर्ग की आँखों से आँखें न मिल जाएँ। यहाँ आँखें मिलाकर बात न करना ही लायक और लक्ष्मी बहू का लक्षण है। वैसे लक्ष्मी बहू होना आसान नहीं है, यह बात मैं ब्याह होने के वाद, बखूबी समझ गई हूँ। जिसे कहते हैं नस-नस में महसूस करना।

मेरे ब्याह के दिन हबीब एक लम्बी-सी टोपी पहने। हिज़डों की तरह नाच रहा था। उसका हाव-भाव देखकर मैं ज़ोर से हँस पड़ी थी।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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