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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास

15


महीने पर महीने गुज़रते रहे।

मेरा तलपेट दिनोंदिन भारी होता गया।

अब मुझे खाना पकाने की कोई जरूरत नहीं थी। घर का कोई काम करना भी ज़रूरी नहीं था। हारुन ने कह दिया था।

'कोई काम नहीं करूँगी, तो और क्या करूँगी?'

'लेटी रहो, बैठी रहो...बस, आराम करो! खूब-खूब खाओ-पीओ-मांस-मछली, अंडे, दूध!'

'इतना-इतना खाने की भला क्या ज़रूरत है?'

'भई, तुम्हें ज़रूरत न हो, मगर मेरे बच्चे को तो है।'

'अच्छा, तो ऐसा कहो न!'

'अब मैं जो-जो पत्रिकाएँ पढ़ना चाहती थी, हारुन ला-लाकर ढेर लगाता रहा। मैं लेटे-लेटे बस, पढ़ती रही थी। अब उसने मेरे सोने के कमरे में एक अदद टेलीविजन भी लाकर रख दिया था, ताकि मैं लेटे-लेटे ही प्रोग्राम देख सकूँ!

मेरा कमरा हर वक़्त फल-फूलों से भरा रहता था। सुबहर-दोपहर-शाम, इन दिनों तीनों वक़्त, मैं सासजी, दोलन और रानू के हाथों, पकाया हुआ खाना खाती थी। अब हारुन भी दफ्तर से देर-देर रात नहीं लौटता था! सुनने में आया कि शाम होते ही, वह घर लौटने को छटपटाने लगता था। आते वक़्त, रास्ते से ढेर सारा सामान भी ख़रीद लाता था! सब खाने की चीजें! फल तो खैर, हर वक्त घर में मौजूद रहता था, दूध, हॉर्लिक्स, सन्तरे का रस, सेब-अंगूर का रस! इतना सारा खाना, मैं अकेले नहीं खा पाती। घरवालों को बुला-बुलाकर, सबको बाँटती रहती थी! इसके बावजूद खाना ख़त्म ही नहीं होता था। अब इस घर में काफ़ी अनमोल इन्सान हूँ। इन दिनों मैं खानदान के चिराग का लालन-पालन कर रही थी। मैंने अपने गर्भ में उनके वारिस को धारण कर रखा है!

सासजी बार-बार आकर मेरी तबीयत की खोज-खबर ले जाती थीं। वे बार-बार मुझे दरयाफ्त करती थीं कि मेरा क्या-क्या खाने का मन हो रहा है। वे कुछ ज़्यादा ही मेरी देखभाल कर रही थीं, ताकि हारुन के दफ्तर से लौटने पर मैं यह बता दूं कि सासजी मेरी काफ़ी देखभाल करती हैं! सासजी चाहे जितनी भी रौब-दाबवाली महिला हों, वे अपना सारा रौब, अपने बेटे की बहुओं पर ही झाड़ती थीं। जिस बेटे . पर वे निर्भर करती थीं, वह बेटा अब जो-जो चाहता है, वे वही-वही मानने को लाचार थीं। दौलत जिसके हाथ, लगाम भी उसी के हाथ। सबकी नाक में नकेल पड़ी है, उसकी डोरी जिस-जिस तरफ़ घूमेगी, निर्भरशील लोग उधर-उधर ही घूमते रहेंगे। क्षमता अब और किसी बात का नहीं, रुपइए ही क्षमता है। माँ-बाप, भाई-बहन, सभी रिश्ते-नाते या बड़े-छोटे मामले, यहाँ तक पहुँचकर तुच्छ हो जाते हैं। आजकल तो उम्र में छोटे व्यक्ति के हर में भी अगर रुपए आ जाएँ, तो उम्रदार लोगों को भी उसे अपना गुरु मान लेना होता है।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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