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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास

10


सेवती से मेरी दोस्ती दिनोंदिन गहराती चली गई। मुझे लगा, सेवती को मैं जनम-जनम से पहचानती हूँ। किसी ज़माने में वह मेरी आत्मा की आत्मीय थी। सेवती कब स्कूल जाती है, कब वापस लौटती है, कब खाती है, क्या खाती है, कब सोती है, कब घूमने जाती है-मैं हर रोज़ इन सबकी खोज-खबर रखती हूँ। सेवती जब मछली पकाती थी, एक कटोरी मेरे लिए भी ले आती थी। मैं भी जो कुछ पकाती थी, एक कटोरी नीचे भेज देती थी। ऐसी हालत हो गई कि एक-दूसरे का पकाया हुआ खाना नहीं खाया, तो हमें बदहज़मी हो जाएगी। हमारा रोज़-रोज़ मिलना, गपशप करना अनिवार्य हो गया। ज़िन्दगी में जितनी सारी बातें थीं, एक-दूसरे को बताना ज़रूरी हो गया। दोनों के शैशव और बचपन की जितनी सारी बातें थीं, सब कुछ एक-दूसरे से कहते-सुनते रहे। फिर भी बातें थीं, जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं, मानो चौबीस सालों का किस्सा सुनाने के लिए, अभी और चौबीस सालों की ज़रूरत थी।

सेवती ने कहा, 'पता है, मैं थी घरघुसरी लड़की। घर में बैठी-बैठी, बस, क्लास की पढ़ाई का रट्टा लगाती थी और शाम होते ही, जब लड़के-लड़कियाँ मैदान में खेलने उतरते थे, मैं उन लोगों को दूर ही निरखती रहती थी, खुद कभी खेलने नहीं गई। अब यह हाल है कि मुझे घरमुखी होने की ही फुर्सत नहीं मिलती। तुम भी थी मैदान-घाट में डाँव-डाँव घूमती-भटकती, डाकू लड़की! अब तुम कुएँ की मेंढक जैसी ज़िन्दगी गुज़ार रही हो।'

मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम कि मेरी इस कुएँ की मेंढकी जैसी ज़िन्दगी पर सेवती को काफ़ी तरस आता था या नहीं। शायद जूरूर तरस आता था, तभी तो वह मुझे यूँ बाहर की दुनिया की ढेर-ढेर कहानियाँ-किस्से सुनाती थी। बाहर की वह दुनिया मुझे काफ़ी दूर की दुनिया लगती थी। मानो उस दुनिया से मेरी कभी, किसी ज़माने में भी मेरी जान-पहचान नहीं थी। मानो वह दुनिया इतनी दूर थी कि मैं उस दुनिया तक कभी भी नहीं समझ पाऊँगी। कम-से-कम इस ज़िन्दगी में तो कभी नहीं!

सेवती कभी मुझे 'भाभी' बुलाया करती थी। लेकिन अब वह मुझे भाभी कहकर नहीं बुलाती। अब तो 'आप' सम्बोधन भी गायब हो गया है! अब झूमुर! तुम! मैं भी सेवती! तुम! सेवती की जुबानी अस्पताल के मरीजों के बारे में सुनते-सुनते, अब तो ऐसी हालत हो गई है कि बहुत-से रोगियों का हाल-समाचार मैं ख़ुद ही पूछने लगी हूँ-आयशा की तबीयत अब कैसी है? सबीना के स्टिचेज़ अब तक सूखे या नहीं? मानो अदेखी आयशा, रुबीना, फुलेरा, ज्योत्स्ना वगैरह मेरी कोई रिश्तेदार हों, आयशा को एक बेटी हुई थी! पहली वेटी! यह ख़बर सुनकर उसका पति झुंझलाकर अपने घर लौट गया। उसे अपनी बेटी का चेहरा देखने का ज़रा भी चाव नहीं हुआ! अब आयशा अपनी बेटी को गोद में लिए-लिए दिन-भर रोती रहती है। रूबीना की कोख की नली में बच्चा बढ़ने लगा था। उस नली को काटकर फेंक देना पड़ा। सिलाई के बाद जख्म की जगह पर घाव हो गया था. सिलाई सख ही नहीं रही थी! फूलेरा की योनि बाहर निकल आई थी। ज्योत्स्ना को एक्लामशिया है। पेट में बच्चा मर गया। सेवती जी-जान से ज्योत्स्ना की जान बचाने में जुटी हुई है। रोग और रोगियों के बारे में सेवती इनता-इतना फ़िक्र करती है। उसकी वह फ़िक्र अब मेरे अन्दर भी संक्रमित होने लगी है। आजकल मुझे लगने लगा है कि मेरे पेट के भीतर कोई ट्यूमर धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा है। मेरी कोख में शायद कोई घाव हो गया है और अब फटने वाला है। गर्भ की नली में शायद गाँठ पड़ गई है। मेरे अन्दर-ही-अन्दर कहीं डर फैलने लगा था। जैसे भय चिपकू की तरह मेरे मन के आँगन से टस से मस नहीं होता था, कौतूहल भी मुझे कसकर दबोचे हुए था। मेरे अन्दर तीखी चाह जाग उठी कि ऐसे भयानक-भयानक रोग, सेवती निरोग कैसे करती है! बात सिर्फ रोग और इलाज़ की नहीं थी, बीमार होने, बेटी को जन्म देने, बच्चा न होने के ऐब के लिए, जिन औरतों को उनके पति, बेहिचक उन्हें तलाक़ दे देते हैं, वे औरतें अब किस हाल में हैं?

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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