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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास

9


आजकल बरामदे में खड़े होते ही, मेरी उस पर नज़र पड़ जाती है। गर्दन तक झूलते बाल! उदास आँखें। बगीचे में बैठे-बैठे वह या तो सिगार फूंकता रहता है या आकाश की तरफ़ नज़रें गड़ाए, घास पर लेटा रहता है। कभी-कभी वह तस्वीरें आँकता हुआ नज़र आता है! हाथ में रंग और तूलिका! तस्वीरें आँकने वाला वह शख्स कौन है? मैं तन्मय निगाहों से उस नौजवान को देखा करती हूँ। कभी-कभी अचानक उसकी भी नज़र मुझ पर पड़ जाती है। उसकी उदास आँखें मुझ पर टिकी रहती थीं।

शाम होते ही, जाने कौन तो मुझे खींचकर बरामदे में ला खड़ा करता है! जाने कौन तो उस सुदर्शन नौजवान को भी वहाँ ला खड़ा करता है। जाने कौन तो उसकी आँखों को मेरी ओर देखने को उकसाता था। जाने कौन तो मेरे अंग-अंग में सरसराहट भरकर, एक किस्म की पुलक बिख्नेर देता था। पता नहीं कौन तो मुझे बरामदे में अटकाए रखता था। सासजी मुझे, बहूरानी! बहूरानी! पुकारती रहती थीं, दोलन भाभी-भाभी की गुहार लगाती रहती, लेकिन उस वक्त किसी की भी पुकार मेरे कानों तक नहीं पहुँचती थी, मैं अपने को उस नौजवान की उदास युगल-आँखों में गुम कर देती! वह कौन है?

बहरहाल, कुछेक दिनों में उसका परिचय भी मिल गया। वह नौजवान सेवती का देवर था-अफजल!

सेवती ने बताया, 'अफज़ल के नहाने-खाने तक का कोई ठीक-ठिकाना नहीं है। रात-दिन पेंटिंग में पड़ा रहता है। बंगलौर पढ़ने गया, मगर वहाँ सबकुछ फेंक-फाँककर पेंटिंग सीख डाली और अब इसी में खोया रहता है।

मैं अफज़ल के बारे में मगन होकर सुनती रहती थी।

हर शाम, बरामदे में खड़े-खड़े, मैं दूर से ही अफजल की उदास आँखें निहारती रहती थी, मगर मेरी प्यास नहीं बुझती! मेरा जी चाहता था, उसके और करीब जाऊँ। उसे और करीब से देखूँ।

एक शाम, बावर्चीखाने के सारे काम निपटाकर मैंने नीचे, बगीचे में टहलने जाने की अनुमति माँगी!

सासजी ने जाने की अनुमति तो दे दी मगर अकेले नहीं दोलन के साथ! दोलन, सुमइया को गोद में दबोचे-दबोचे, मेरे साथ बगीचे की तरफ़ चल दी।

वह बगीचा, दरअसल बगीचा नहीं था, टुकड़ा-भर मैदान था। इस घर में आने के बाद, सेवती ने गुलाब और गेंदे के कुछेक पौधे लगाए थे।

मैं और दोलन, जब मैदान में टहल रहे थे, अफज़ल वहाँ नहीं थे। चूंकि वह बगीचे में नहीं था, इसलिए हमें काफ़ी देर तक टहलने का मौका मिला। मैं इधर-उधर खोजभरी निगाहों से देखती रही। कई बार सेवती के बन्द दरवाज़े की तरफ़ मेरी निगाहें जा पड़ीं। मेरे सीने में कहीं हाहाकार मचा हुआ था। मैं क्या अफज़ल के इश्क में पड़ गई हूँ। अगर ऐसा न होता, तो शाम को बरामदे में खड़े होकर निरखना-परखना और उसे और क़रीब से देखने के लिए, यूँ हिकमत करके, बगीचे में हवा खाने आने की क्या वज़ह है? अगर इसका नाम प्यार है, तो सर्वनाश!

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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