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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


बगीचे में टहलते हुए, दोलन अनीस के कारोबार के बारे में बताने लगी। छ: लाख रुपयों की पूँजी लगाकर, उसने अच्छा-खासा कारोबार शुरू कर दिया है। अब बहुत जल्दी ही दोलन, अपने पति के पास चली जाएगी। इन दिनों उसके भाई के बुरे दिन आए हुए हैं, उसे यहीं होना चाहिए था, मगर लगता है, यह सम्भव नहीं होगा। यही सब बातें, वह धाराप्रवाह किए जा रही थी। मगर मैं उन दो उदास आँखों के ख्यालों में डूबी हुई थी। उन आँखों को बेहद करीब से देखने का मौका, इस ज़िन्दगी में क्या मुझे कभी नहीं मिलेगा?

अचानक कोई भारी-भरकम आवाज़ सुनकर मैं अचकचा गई! खिड़की पर वही उदास आँखें!

उसने आवाज़ देकर कहा, “ए बच्ची, फूल मत तोड़ो!' सुमइया फूल तोड़-तोड़कर, उसकी पंखुड़ियाँ अलग कर रहा था।

लेकिन उस नौजवान की आँखें मुझ पर ही टिकी हुई थीं। दोलन ने सुमइया को फूलों के करीब से हटा लिया।

'चल, अब चलें।'

'अभी ही? थोड़ी देर और रुक जाओ न! बस, कुछ देर और!'

'देखो, अब शाम हो चुकी है। यूँ खुले बाल, बगीचे में टहलने से कहीं कोई हादसा न हो जाए। चल, अब चलें और देखती नहीं, सामने एक पराया मर्द खड़ा है। वह तुम्हें देख रहा है, भाभी, यह ठीक नहीं है।'

दोलन, अपने भाई की सती-साध्वी बीवी को वहाँ से हटा लाई। पराए मर्द के नयन-वाण के निशाने से परे हटा लाई। दोलन को ख़बर नहीं, वह तीर तो मेरे दिल में बिन्ध चुका है। मुझे समझ में नहीं आता कि देह और मन का नियन्त्रण किसके हाथों में होता है। मैं तो सिर्फ़ हारुन को ही जानती हूँ, उसे ही प्यार भी करती हूँ। यूँ हारुन के अलावा भी मैंने और-और मर्द भी देखे हैं, मगर किसी के लिए अपनी नसों में ऐसी हलचल मैंने कभी महसूस नहीं की। यह क्या सचमुच किसी प्यार का ही अहसास है या जन्ज़ीर-बँधे पैरों का नियम ही यही है कि खुले-खुले मैदानों के प्रति तीखा आकर्षण महसूस करते हुए, वह पिन्जरे से बाहर आने को आकुल-व्याकुल हो उठता है और खुले मैदानों में घूमते-फिरते लोगों के प्रति भी खिंचाव महसूस करता है या यह प्रियजनों से आघात पाकर, इन्सानी नियम-मुताबिक ही, दूसरे इन्सानों की तरफ़ झुकने लगता है, थोड़ा-सा ही सही, आश्रय ढूँढ़ना!

पापा कहा करते थे, 'देखो, अपनी पनाह खुद बनो। इससे बड़ी सुरक्षा और कहीं नहीं होती।

लेकिन अब पापा को शायद अपने आदर्श पर भरोसा नहीं रहा। जिस बेटी का उन्होंने बेटे की तरह लालन-पालन किया, अब वह किसी और घर की महज शिक्षित गृहवधू बनकर रह गई। अब वह दूसरों के सहारे पनपती हुई लता भर है। अब पापा भी इस बारे में कोई एतराज़ नहीं उठाते, शायद उन्होंने भी यह क़बूल कर लिया है कि समाज का यही नियम है। औरत अगर किसी मर्द के आश्रय में रहे, तो उसके आत्मीय, स्वजन-यार-दोस्त, अड़ोस-पड़ोस-सभी खुश होते हैं।

दोलन की हड़बड़ी मचाने की वजह से, मुझे उठना पड़ा, बगोचे से निकलकर, घर की दूसरी मन्ज़िल में, अपने पिन्जरे में लौट आना पड़ा।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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