लोगों की राय

उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

Like this Hindi book 0

दीक्षा

एक

 

विश्वामित्र ने समाचार सुना और एकदम क्षुब्ध हो उठे। उनकी आंखें, ललाट, कपोल-क्षोभ से लाल हो गए। क्षण भर के लिए समाचार लाने वाले पुनर्वसु को वह ध्यान से घूरते रहे; और सहसा उनके नेत्र झुककर पृथ्वी पर टिक गए। अस्फुट-से स्वर में बोले, ''असह्य।''

शब्द के उच्चारण के साथ ही उनका शरीर सक्रिय हो उठा। झटके से उठकर खड़े हो गए, 'मार्ग दिखाओ वत्स!''

पुनर्वसु पहले ही स्तंभित था, गुरु की प्रतिक्रिया देखकर एकदम जड़ हो चुका था। सहसा आज्ञा सुनकर जाग पड़ा और अटपटी-सी चाल चलता हुआ, गुरु के आगे-आगे कुटिया से बाहर निकल गया।

विश्वामित्र झपटते हुए पुनर्वसु के पीछे चल पड़े।

मार्ग में जहां-तहां आश्रमवासियों के त्रस्त चेहरे देखकर विश्वामित्र का उद्वेग बढ़ता गया। आश्रमवासी गुरु को आते देख, मार्ग के एक ओर हट, नतमस्तक खड़े हो जाते थे। उनका इस प्रकार निरीह-कातर होना, गुरु को और अधिक पीड़ित कर जाता था : ये मेरे आश्रित हैं। मुझ पर विश्वास कर यहां आए हैं। इनकी व्यवस्था और रक्षा मेरा कर्त्तव्य है। और मैंने इन सब लोगों को इतना असुरक्षित रख छोड़ा है।'

आश्रमवासियों की भीड़ में दरार पैदा हो गई। उस मार्ग से प्रविष्ट हो, विश्वामित्र वृत के केन्द्र में पहुंचे। उनके कठोर शुष्क चेहरे पर दया, करुणा, पीड़ा, उद्वेग, क्षोभ, क्रोध, विवशता के भाव पुंजीभूत हो, कुंडली मारकर बैठ गए थे।

उनके पैरों के पास, भूमि पर नक्षत्र का शव चित्त पड़ा था। पहचानना कठिन था कि शरीर किसका है। विभिन्न मांसल अंगों की त्वचा फाड़कर मांस नोच लिया गया था, जैसे रजाई फाड़कर गूदड़ निकाल लिया गया हो। कहीं केवल घायल त्वचा थी, कहीं त्वचा के भीतर से नंगा मांस झांक रहा था, जिस पर रक्त जमकर ठंडा और काला हो चुका था; और कहीं-कहीं मांस इतना अधिक नोचा गया था कि मांस के मध्य की हड्डी की श्वेतता मांस की ललाई के भीतर से भासित हो रही थी। शरीर के विभिन्न तंतु, टूटी हुई रस्सियों के समान जहां-तहां उलझे हुए थे। चेहरा जगह-जगह से इतना नोचा-खसोटा गया था कि कोई भी अंग पहचान पाना कठिन था...

विश्वामित्र का मन हुआ कि ये अपनी आंखें फेर लें। पर आंखें नक्षत्र के क्षत-विक्षत चेहरे से चिपक गई थीं; और नक्षत्र की भय-विदीर्ण मृत पुतलियां कहीं उनके मन में जलती लौह-शलाकाओं के समान चुभ गई थीं। अब वे न अपनी आंखें फेर सकेंगे, और न उन्हें मूंद ही सकेंगे। बहुत दिनों तक उन्होंने अपनी आंखें मूंदे रखी थीं...

''यह कैसे हुआ वत्स?'' उन्होंने पुनर्वसु से पूछा।

''गुरुदेव! पूरी सूचना तो सुकंठ से ही मिल सकेगी। सुकंठ नक्षत्र के साथ था।''

''मुझे सुकंठ के पास ले चलो।''

जाने से पहले विश्वामित्र आश्रमवासियों की भीड़ की ओर उन्मुख हुए, ''व्याकुल मत होओ तपस्वीगण! राक्षसों को उचित दंड देने की व्यवस्था मैं शीघ्र करूंगा। नक्षत्र के शव का उचित प्रबंध कर मुझे सूचना दो।''

वह पुनर्वसु के पीछे चले जा रहे थे, 'जब कभी मैं किसी नये प्रयोग के लिए यज्ञ आरंभ करता हूं, राक्षस मेरे आश्रम के साथ इसी प्रकार रक्त और मांस का खेल खेलते हैं। रक्त-मांस की इस वर्षा में कोई भी यज्ञ कैसे संपन्न हो सकता है...'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book