उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
दस
सिद्धाश्रम से बाहर निकलते ही राम को ज्ञात हो गया कि आश्रमवासियों की सूचना-व्यवस्था पूर्णतः समाप्त हो चुकी थी। युद्ध के लिए अनभ्यस्त आश्रमवासियों की जिन टुकड़ियों को सूचना लाने-ले जाने के कार्यों पर नियुक्त किया था, वे सारी टुकड़ियां युद्ध आरंभ होते ही राक्षसों से लड़ने के लिए आश्रम में चली आई थीं। अतः राक्षसों की गतिविधि का किसी को कोई ज्ञान नहीं था। राम सावधान हो गए। राक्षस अपनी बस्ती में भी हो सकते हैं और सम्मुख युद्ध के लिए आ सकते हैं। वे वन में इधर-उधर छिपे हुए भी हो सकते हैं और अवसर पाते ही गुप्त आक्रमण भी कर सकते हैं। वे आश्रम के पास कहीं छिपे हुए आश्रमवासियों की गतिविधियों का निरीक्षण भी कर रहे हो सकते हैं, आश्रमवाहिनी के आश्रम से निकलते ही वे आश्रम पर आक्रमण भी कर सकते हैं और आश्रम में पीछे रह गए लोगों को हानि पहुंचा सकते हैं-गुरु विश्वामित्र भी अभी आश्रम में ही हैं...
अंततः राम ने नायक पृथुसेन को उसके सैनिकों के साथ आश्रम की रक्षा के लिए रुकने का आदेश दिया। न तो पृथुसेन आश्रम में रुकना चाहता था, न उसके सैनिक ही इस बात से प्रसन्न थे। कदाचित् वे लोग अपने पिछले व्यवहार का प्रतिकार करना चाहते थे। वे राक्षसों से युद्ध कर अपने पापों का प्रायश्चित कर राम के प्रति अपनी निष्ठा तथा स्वामिभक्ति प्रमाणित करना चाहते थे। राम उनके इस अतिरिक्त उत्साह को, समझ रहे थे। अतः उन्होंने पृथुसेन से कहा था, ''मैं तुमसे वही करने के लिए कह रहा हूं, जो स्वयं तुम्हारी और तुम्हारे सैनिकों की इच्छा है। अतीत का प्रतिकार। तुमने अब तक सिद्धाश्रम को असुरक्षित छोड़ा है, आज उसकी रक्षा करो।''
पृथुसेन को सहमत होना पड़ा, और आश्रम की ओर से कुछ निश्चिंत होकर राम ताड़का वन की ओर बढ़ गए।
राक्षसों को गतिविधि के विषय में कोई भी सूचना न होने से, सावधानी बहुत आवश्यक थी। अतः राक्षस शिविर से बहुत पहले ही राम रुक गए। उन्होंने विभिन्न ग्रामों के योद्धाओं को उन्हीं के मुखिया के अधीन अनेक टोलियों में बांट दिया। उन टोलियों को उन्होंने थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अर्धवृत्त के रूप में फैला दिया। वे सारी टोलियां एक साथ आगे बढ़ रही थीं...
राक्षस-शिविर की सीमा तक वे लोग निर्विघ्न आ गए। किंतु, अब तक कोई राक्षस युद्ध करने तो नहीं ही आया, उन्हें कहीं कोई राक्षस दिखाई भी नहीं पड़ा था। इसके दोनों अर्थ हो सकते हैं-या तो राक्षस भयभीत होकर बस्ती से भाग गए थे, या फिर वे लोग शिविर के भीतर छिपे अन्तिम युद्ध के रूप में गुप्त आक्रमण करने के लिए तैयार बैठे थे। ग्रामीण टोलियों और आश्रमवाहिनी के इतने कोलाहल के पश्चात् भी कोई राक्षस सम्मुख नहीं आया था, अतः सम्मुख-युद्ध की कोई संभावना अब नहीं थी।
शिविर के भीतर प्रवेश करना अनिवार्य हो गया था। बाहर रुक कर राक्षसों की प्रतीक्षा करना निरर्थक था।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
- तेरह